अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2023: जहां सबसे ज्यादा अधिकार, वहां भी उपेक्षा की शिकार

‘सात बहनों’ के नाम से मशहूर पूर्वोत्तर राज्यों में देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले महिलाओं की स्थिति बेहतर है। लेकिन आम जनजीवन में उनको ज्यादा अधिकार नहीं हैं। न तो राजनीति में उनकी कोई चलती है और न ही समाज में। नागालैंड राज्य के गठन के करीब छह दशक बाद बीते महीने हुए विधानसभा चुनाव में पहली बार दो महिलाओं ने चुनाव जीता है। इससे राज्य में महिलाओं की राजनीतिक हैसियत का पता चलता है।

मणिपुर की राजधानी इंफाल में महिलाओं का एक अनूठा बाजार भी है, जो देश में अपनी तरह का अकेला ऐसा बाजार है जहां मालिक भी महिलाएं हैं और दुकानदार भी। मिजोरम समेत बाकी राज्यों में भी कमोबेश यही स्थिति है। विडंबना यह है कि पुरुषों पर भारी होने के बावजूद समाज में यह महिलाएं बेचारी ही हैं।

राजनीति में महिलाएं हाशिए पर हैं। इसी तरह पारिवारिक या सामाजिक मुद्दे पर उनको फैसले का अधिकार भी नहीं हैं। यही नहीं, उनको पुरुषों का अत्याचार भी झेलना पड़ता है।

पूर्वोत्तर के राज्यों में महिलाओं की स्थिति

जिस राज्य में महिलाओं को दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा अधिकार मिले हों, वहां उन पर अत्याचार की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। लेकिन यह इलाके की कड़वी हकीकत है। ‘पूर्वोत्तर भारत का स्कॉटलैंड’ कहे जाने वाले पर्वतीय राज्य मेघालय में मातृसत्ता वाला समाज है। यानी समाज में महिलाओं की हैसियत व अधिकार मर्दों से ज्यादा हैं।

छोटी पुत्री ही घर व संपत्ति की मालकिन होती है और उसी के नाम पर वंश आगे चलता है। उससे शादी करने वाले लड़के को घरजमाई बनना पड़ता है। इसके बावजूद यह विडंबना ही है कि राज्य व समाज के विकास से जुड़े किसी भी महत्वपूर्ण फैसले में उनकी कोई भूमिका नहीं है। यही नहीं, इन महिलाओं को अब घरेलू हिंसा का भी शिकार होना पड़ रहा है। राज्य में बढ़ती शराबखोरी इसकी सबसे बड़ी वजह है।

मेघालय के अलावा, मिजोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश के कई कबीलों और जनजातियों में तो महिलाएं ही परिवार की मुखिया होती हैं। बावजूद इसके ज्यादातर मामलों में वह अपने अधिकारों का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पातीं या उनको ऐसा करने नहीं दिया जाता। परिवार और समाज में अहम फैसलों में उनकी भूमिका काफी नगण्य है।

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी

राजनीति में भी महिलाएं हाशिए पर हैं। यही वजह है कि अक्सर विधानसभा समेत दूसरे प्रशासनिक निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग उठती रही है। लेकिन हर बार पुरुष-प्रधान समाज की ओर से इसका विरोध किया जाता रहा है। नतीजतन अक्सर हिंसा होती रही है।

नागालैंड में वर्ष 2017 में हुई हिंसा इसका सबूत है। उगते सूरज की धरती कहे जाने वाले अरुणाचल प्रदेश में लंबे अरसे से विधानसभा और सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग उठती रही है। अब महिला आयोग ने भी वर्ष 2019 में सरकारी नौकरियों और विधानसभा में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की मांग उठाई थी।

इसी तरह मिजोरम के आम जनजीवन में भी महिलाओं की भूमिका काफी अहम है। ईसाई बहुल राज्य मिजोरम की अर्थव्यवस्था, घरेलू और सामाजिक मामलों में महिलाओं का योगदान बेहद अहम है। राजधानी आइजोल के किसी भी बाजार में ज्यादातर दुकानों पर महिलाएं ही नजर आती हैं। सरकारी दफ्तरों में भी उनकी तादाद ज्यादा है। बावजूद उसके परिवार या समाज में किसी अहम फैसले में उनकी राय नहीं ली जाती।

मणिपुर में दुनिया का इकलौता ऐसा बाजार (एम्मा मार्केट) है जहां तमाम दुकानदार महिलाएं ही हैं। सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) के विरोध में मणिपुरी महिलाओं का विरोध और आंदोलन देश ही नहीं पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरता रहा है। एक युवती से बलात्कार और हत्या के बाद सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए)) खिलाफ वर्ष 2004 में राज्य की महिलाओं की नग्न रैली ने पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं। महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता ईरोम शर्मिला भी इस कानून के विरोध में बरसों तक भूख हड़ताल पर रही थीं।

महिला उत्पीड़न कब रुकेगा

महिलाओं के एक संगठन नार्थ ईस्ट नेटवर्क की ओर से किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि तमाम अधिकारों के बावजूद पूर्वोत्तर की महिलाएं घर-परिवार में उत्पीड़न की शिकार हैं। संगठन के एक प्रवक्ता बताते हैं, “अब यहां घरेलू हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ रही है। लेकिन ऐसे ज्यादातर मामले दबा दिए जाते हैं। पंचायतें भी इसे निजी मामला मानते हुए इनमें हस्तक्षेप नहीं करतीं। खासकर ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाओं में तेजी आई है।

मणिपुर के एक सामाजिक कार्यकर्ता ओ. दोरेंद्र सिंह कहते हैं, “जब तक राजनीति में महिलाओं की भागीदारी नहीं बढ़ेगी, तब तक समाज में उनकी बातों का कोई खास असर नहीं होगा। इसके लिए जागरूकता अभियान चलाना भी जरूरी है।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस मातृसत्तात्मक समाज में भी पुरुष-प्रधान मानसिकता बुरी तरह हावी है। इस मानसिकता के नहीं बदलने तक महिलाओं की स्थिति में सुधार संभव नहीं है। जब तक राजनीति में महिलाओं की भागीदारी नहीं बढ़ेगी, तब तक समाज में उनकी बातों का कोई खास असर नहीं होगा। लेकिन यह स्थिति कब बदलेगी, लाख टके के इस सवाल का जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदाई नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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