कोरोना महामारी के वक्त लाखों मजबूर सड़कों पर थे। उनके लिए राहत की माँग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अर्ज़ी दाखिल कीगई।सरकार ने अदालत को कहा कि अभी कोई सड़क पर नहीं है।अदालत ने कहा कि सरकार ही सच बता सकती है । इसलिएउ सकी बात मानते हुए उसने यहाँ भी फ़ाइल बंद कर दी। जब वह ऐसा कर रही थी, उस समय भी भारत की सड़कों पर मज़दूर पैदल, साइकिल पर अपने ठिकानों के लिए कड़ी धूप में रास्ता नाप रहे थे। सच आँखों के सामने था,लेकिन अदालत को उसमें दिलचस्पी नहीं थी। ख़ामोशी की साज़िश!
यह एक विशेष श्रेणी के सत्य की बात है। कोई कह सकता है कि डार्विन के सिद्धांत को न जानने से आपकी ज़िंदगी को फ़र्क नहीं पड़ता। जैसे पृथ्वी सूरज के चारों और चक्कर काटती है या सूरज ही उसके गिर्द घूमता है, इससे यह तय नहीं होता कि आपकी नौकरी रहेगी या नहीं।
कश्मीर के पुलवामा में 2019 के आम चुनाव के ठीक पहले सी आरपीएफ़ के क़ाफ़िले के एक हिस्से पर आत्मघाती हमला हुआ। 40 जवान मारे गए। इस हमले को भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी मुद्दा बना लिया।इसे पाकिस्तान का हमला बतलाया। ख़ुद को देश के रक्षक के तौर पर पेश किया। इस हमले के बारे में उस समय विपक्ष और बौद्धिकों के एक हिस्से की सच जानने का माँग को देशद्रोह ठहराया गया।
वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में अमित शाह के मामले की सुनवाई कर रहे सी बी आई की अदालत के जज लोया की रहस्यमय मौत का सच जानने में खुद सर्वोच्च न्यायालय को भी रुचि न थी।सच जानने की कोशिश करने वालों को कहा गया कि वे एक तरह से अदालत की सत्ता पर ही सवाल उठा रहे हैं। किसी भी दूसरे देश में मीडिया के लिए इस सच को जानना सबसे बड़ा काम होता। भारत में उसे दबाना और सच जानने वालों पर हमला करना मीडिया ने अपना कर्तव्य बना लिया।
“तानाशाही और जनतंत्र का फ़र्क यही है कि तानाशाही सच का एकमात्र स्रोत सत्ता को बतलाती है। स्टालिन के रूस में सत्ता के सच पर सवाल करनेवालों का क्या हश्र हुआ, हम जानते हैं। माओ से लेकर शी जीनपिन तक के चीन में सच की खोज का जोखिम क्या है, किसी से छिपा नहीं।हिटलर के मंत्री गॉयबेल्स ने तो सच की परिभाषा ही बदल दी थी।
कोई 65 साल जनतंत्र का अभ्यास करने वाले भारत के लोगों को पिछले 10 साल से दिन रात सिखलाया जा रहा है कि सच एक है और वह सत्ता के मुख से आता है। वह जो बतलाती है, उससे अलग कुछ भी जानने की इच्छा व्यर्थ ही नहीं, ख़तरनाक है।अपराध है। बल्कि देशद्रोह है। सरकार ने अदालत के सामने अर्ज़ी लगाई है कि नागरिकों को सच जानने की कोशिशों को ग़ैरक़ानूनी ठहराया जाए।सूचना प्रौद्योगिकी के संबंध में सरकार क़ानून बनाना चाहती है कि सच क्या है, झूठ क्या है, यह बतलाने का एकाधिकार उसके पासहोगा। वह जिसे सच कहेगी, वही सच होगा, जिसे झूठ मानेगी, वह ग़ायब कर दिया जाएगा।
दो प्रेमी तो यह गाना गा सकते हैं कि तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे और वह मूर्खता नहीं,उनके प्रेम की प्रगाढ़ता का प्रमाण है। लेकिन जब सरकार जनता के सामने यह गाना गाने लगे कि मैं जो दिन को रात कहूँ तो तुम भी उसे रात मानो, तभी तुम मेरी जनता रहोगी तो जनता को समझ लेना चाहिए कि यह गाना गाने वाली सरकार उसकी नहीं है।