NCRT BOOKS : राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद्(एन.सी.आर.टी) के पाठ्यपुस्तक निर्माण से जुड़े समूह की कुछ सदस्यों ने स्कूली किताबों में बड़े पैमाने पर किए गए संपादन का बचाव किया है।संपादन का अर्थ है,विभिन्न विषयों की पुस्तकों से ढेर सारे अंशों को हटाना।पहले तर्क यह दिया गया कि कोरोना महामारी के कारण छात्रों पर पूरी पूरी किताबों को पढ़ने का समय नहीं था, इसलिए ऐसे अंशों को हटाया गया जिनके बिना भी उस विषय की समझ आसानी से बनाई जा सकती थी। कोई विषय अगर आगे की कक्षा में पढ़ाया जा रहा है तो पीछे की कक्षा की किताब से उसे हटाया जा सकता है। इसी तर्क के सहारे दसवीं कक्षा के पहले डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत की चर्चा हटा दी गई है। यह उचित प्रतीत होता है क्योंकि 11वीं और 12वीं की प्राणिशास्त्र की किताबों में उसका ज़िक्र है।
यह तर्क इसलिए कमजोर है कि हम सब जानते हैं कि हमारे मुल्क में किशोरों की बड़ी संख्या 10वीं के आगे स्कूल या कॉलेज नहीं जाती। जो जाते हैं, वे अनिवार्य रूप से प्राणिशास्त्र नहीं पढ़ेंगे। ऐसे सभी लोग इस ज्ञान से वंचित रहेंगे कि मनुष्य का विकास कैसे हुआ। क्या इस सिद्धांत की ज़रूरत मात्र डॉक्टरों और वैज्ञानिकों को है और इतिहासकारों और फ़िल्मकारों को नहीं? मनुष्य या जीव मात्र के विकास की समझ का होना जीवन के किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
ख़ासकर तब जब ऐसे लोग देश का शासन चला रहे हों जो खुलेआम यह कह सकते हैं कि डारविन का सिद्धांत इसलिए ग़लत है कि किसी ने बंदर को आदमी बनते नहीं देखा। इस सिद्धांत का विरोध भारत में भारतीय जनता पार्टी के नेता करते हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि सऊदी अरब, ओमान, अल्जीरिया और मोरक्को में यह पूरी तरह प्रतिबंधित है और लेबनान में नहीं पढ़ाया जाता। अमेरिका में ईसाई समुदाय का एक प्रतिक्रियावादी तबका इसका विरोध करता रहा है। अब भारत भी इन देशों में शरीक हो गया है।
कुछ लोग कह सकते हैं कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है, यह जाने बिना भी हम दिन और रात के चक्र में तो रहते ही हैं, वैसे ही डार्विन के सिद्धांत को न जानने पर भी आदमी बने ही रहेंगे। यह सब कुछ दिमाग़ पर बोझ है, इसे क्यों न उतार फेंकें? इसी तर्क से महात्मा गाँधी के योगदान के बारे में जानने के लिए क्या उनकी हत्या के ब्योरे जानना ज़रूरी है? एन सी ई आर टी के विशेषज्ञों का कहना है कि चूँकि इतिहास की किताब में गाँधी के बारे काफ़ी कुछ है, राजनीति विज्ञान की किताब से उनके जीवन से जुड़े कुछ ब्यौरों को हटाने से फ़र्क नहीं पड़ता।
“प्रश्न गांधी के योगदान का नहीं, उनकी हत्या का है। हत्या के प्रसंग में जिसकी हत्या की गई, वह जितना महत्त्वपूर्ण है, उससे अधिक हत्या करने वाला और हत्या का कारण महत्वपूर्ण है। जिस व्यक्ति को भारत का प्रतीक माना जाता है उसे मुल्क को आज़ादी मिलते ही क्यों मार डाला गया? क्या हत्यारे की पहचान बताना ज़रूरी नहीं?
क्यों गाँधी इतिहास के ही विषय ही नहीं हैं, भारत की राजनीति, वह भी आज़ादी के बाद की राजनीति को समझने के लिए गांधी की हत्या के कारण समझना क्यों ज़रूरी है, ये लोग अच्छी तरह जानते हैं जो इस हत्या के कारण पर बात नहीं करना चाहते? यह तथ्य इसलिए जानना आवश्यक है कि गांधी पर गोडसे ने पहली बार के हमले में ही उन्हें नहीं मार डाला था। उन पर वह पहले भी हमला कर चुका था। और उसके अलावा और लोगों ने भी ग़ुलाम भारत में गाँधी की हत्या की कोशिश की थी।
गांधी से क्रोध का एक कारण अस्पृश्यता के खिलाफ उनका संघर्ष था। दलितों को उनका वाजिब धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक हक़ दिलाने की उनकी मुहिम ने तथाकथित उच्च जाति के एक हिस्से को हिंसक रूप से गांधी के ख़िलाफ़ कर दिया था। पुणे में ऐसे ही लोगों ने गांधी की हत्या का प्रयास किया था और उसके पहले उनकी ट्रेन उड़ाने की साज़िश भी की गई थी। गांधी की हत्या के पीछे उनका हाथ था जो अंग्रेजों के जाने के बाद भारत में पेशवाई की वापसी चाहते थे।
गोडसे की जाति का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं है। उसके धर्म का उल्लेख भी ज़रूरी है। यह इसलिए कि गांधी से मतभेद मुसलमान समुदाय के एक हिस्से का भी था और डॉक्टर अंबेडकर जैसे लोगों का भी। लेकिन उनमें से किसी ने गांधी की हत्या करके उनको रास्ते से हटाने के बारे में नहीं सोचा। यह साज़िश तो पेशवाई की वापसी चाहने वाले ब्राह्मणवादी और हिंदुत्ववादियों के एक तबके ने ही की। इस तथ्य को जाने बिना गांधी के राजनीतिक अर्थ को समझना कठिनहै।
आज तो गांधी के हत्यारों की पहचान और उनके राजनीतिक विचार को जानना और भी ज़रूरी है क्योंकि अब उसी विचार को मानने वाले भारत में सत्ता में हैं। गांधी की पूजा करते हुए विनायक सावरकर को आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। गोडसे के गुरु सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा से उसके रिश्ते को समझे बिना गांधी की हत्या की राजनीति को समझना मुश्किल है।
इसलिए गांधी की हत्या मात्र इतिहास का नहीं राजनीति का विषय भी है।उसे राजनीति विज्ञान से हटाना ख़ुद एक राजनीतिक निर्णय है। गांधी के हत्यारों के बारे में जानना अनावश्यक है, यह कौन कह रहा है, क्या यह अंदाज़ करना मुश्किल है?