Birsa Munda birth Anniversary : 15 नवंबर 1875 को उलिहातू गांव में एक बच्चे का जन्म हुआ। मुंडा जनजातियों वाला यह उलिहातू गांव आज के झारखंड के खूंटी जिले में पड़ता है। इस बच्चे ने अपनी शुरुआती शिक्षा सालगा गांव के शिक्षक जयपाल नाग से ली। बाद में जयपाल की सिफारिश पर उसने जर्मन मिशनरी स्कूल ज्वॉइन कर लिया। ईसाई धर्म भी अपना लिया और नया नाम रखा- बिरसा डेविड।
ईसाई धर्म के प्रचारक अपने प्रवचनों में मुंडा जनजाति के पुराने रीति-रिवाजों की आलोचना करते थे। यही बात उस बच्चे को अखर गई और उसने उसी वक्त अंग्रेजों को जवाब देने की ठान ली। उन्होंने आगे चलकर न सिर्फ अंग्रेजों से लोहा लिया, बल्कि महज 25 साल की जिंदगी में आदिवासियों के भगवान भी बन गए।
आज 15 नवंबर 2022 बिरसा मुंडा की 147वीं जयंती पर उनकी जिंदगी के कुछ रोचक किस्से…
अंग्रेज सैनिकों ने एक बच्चे को भी मार दिया था
बिरसा मुंडा के उलगुलान और उस आंदोलन के गुमनाम नायकों की चर्चा करें, तो बिरसा मुंडा और उनके समर्थकों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे. सईल रकब की अंतिम लड़ाई इसका उदाहरण है. इसमें कितने लोग मारे गये थे, इसका कोई हिसाब नहीं है. 9 जनवरी 1900 को जब सईल रकब पर बिरसा मुंडा के समर्थकों पर कैप्टन रोसे ने अंधाधुंध फायरिंग की थी, उसमें जियूरी गांव के मझिया मुंडा, डुंडांग मुंडा और बंकन मुंडा की पत्नी कैप्टन रोसे के सैनिकों के साथ लड़ते हुए शहीद हो गयी थीं. सैनिकों ने एक बच्चे को भी मार दिया था.
बिरसा मुंडा से बिरसा डेविड बनते हैं
बिरसा मुंडा के पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हातू था। बिरसा का बचपन एक गांव से दूसरे गांव की यात्रा में बीता था। जर्मन स्कूल में दाखिला लेने की वजह से उन्होंने अपना नाम बदलकर बिरसा डेविड कर लिया था।
पढ़ाई के दौरान ही बिरसा मुंडा आदिवासियों की जमीन और वन संबंधी अधिकारों की मांग को लेकर सरदार आंदोलन में शामिल होते हैं। उस वक्त ईसाई धर्म के प्रचारक आदिवासियों से कहते थे कि यदि उनके उपदेशों का पालन किया ताे महाजनों ने जो जमीन छीनी है वो वापस मिल जाएगी। उन दिनों जर्मन लूथरन और रोमन कैथोलिक ईसाई किसानों का भूमि आंदोलन चल रहा था। इन ईसाई किसानों को सरदार कहा जाता था।
दरअसल, झारखंड में आने के बाद अंग्रेजी हुकूमत यहां के विद्रोह करने वाले आदिवासियों की जमीन छीन लेती थी। प्रवचनों में इन्हीं छीनी गई जमीनों को वापस दिलाने के वादे से आकर्षित होकर काफी संख्या में लोग ईसाई बन गए, लेकिन जब बिरसा को लगा कि ये लोग कहते कुछ हैं और करते कुछ है तो वह ईसाई धर्म से दूर होने लगे।
15 साल की उम्र में बिरसा ने तंज कसते हुए कहा था कि ‘साहेब साहेब एक टोपी है’। यानी ईसाई मिशनरी जो धर्मांतरण में लगी है और अंग्रेज जो जमींदारों के साथ मिलकर उनके जमीन और जंगल को छीन रहे हैं, वे दोनों एक ही हैं। दोनों का लक्ष्य दमन के जरिए धर्मिक पहचान को छीनना है। इसके बाद ही वह ईसाई धर्म काे त्याग देते हैं और फिर बिरसा मुंडा बन जाते हैं।
बिरसा मुंडा।
मिशनरीज के धर्म परिवर्तन को चुनौती दी
बिरसा को लगने लगा कि ईसाई मिशनरी दिखावा कर रही हैं। ऐसे में मुंडा के मन में एक अलग धर्म का विचार आया। इसे मानने वालों को आज बिरसाइत कहा जाता है। इसके बाद बिरसा ने जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ लोगों को जागरूक करने लगे। बिरसा मुंडा ने अपने धर्म के प्रचार के लिए 12 शिष्यों को नियुक्त किया। जलमई (चाईबासा) के रहनेवाले सोमा मुंडा को प्रमुख शिष्य घोषित किया। उन्हें धर्म-पुस्तक सौंपी। इससे मिशनरीज के धर्म परिवर्तन को चुनौती मिलने लगी, जिससे अंग्रेज बौखला गए।
भगवान का दर्जा मिला
इसी बीच बिरसा मुंडा की मुलाकात स्वामी आनंद पांडे से होती है। स्वामी उन्हें हिंदू धर्म तथा महाभारत के बारे में बताते हैं। कहा जाता है कि 1895 में कुछ ऐसी घटना घटी जिसकी वजह से लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में इस बात का भी विश्वास होने लगा कि बिरसा को छूते ही उनके सभी रोग दूर हो जाएंगे।
मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने, बाघ के खाए जाने को ईश्वर की मर्जी मानते, बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है। बिरसा अब ‘धरती आबा’ यानी ‘धरती पिता’ हो गए थे। इस बीच आदिवासियों में मुंडा की पॉपुलैरिटी बढ़ती जा रही थी।
झारखंड के बोकारो स्टील सिटी में लगी बिरसा मुंडा की स्टेच्यू।
जमींदारी और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी
1894 में की बात है। छोटा नागपुर भयंकर अकाल और महामारी से जूझ रहा था। बिरसा मुंडा ने अपने समुदाय के लोगों को एकत्रित करते हैं और अंग्रेजों से लगान माफी की मांग करते हैं। इसको लेकर बिरसा मुंडा ने एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया। बिरसा ने अंग्रेजों द्वारा लागू की गई जमींदारी और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई छेड़ी। बिरसा ने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी बगावत की। ये महाजन कर्ज के बदले आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर लेते थे।
औपनिवेशिक शक्तियों की संसाधनों से भरपूर जंगलों पर हमेशा से नजर थी और आदिवासी जंगलों को अपनी जननी मानते हैं। इसी वजह से जब ब्रिटिशर्स ने इन जंगलों को हथियाने की कोशिशें शुरू कीं तो आदिवासियों में असंतोष पनपने लगा। ब्रिटिश लोगों ने आदिवासी कबीलों के सरदारों को महाजन का दर्जा दिया और लगान के नए नियम लागू किए।
नतीजा ये हुआ कि धीरे-धीरे आदिवासी कर्ज के जाल में फंसने लगे। उनकी जमीन भी उनके हाथों से जाने लगी। दूसरी ओर, अंग्रेजों ने इंडियन फॉरेस्ट एक्ट पास कर जंगलों पर कब्जा कर लिया। खेती करने के तरीकों पर बंदिशें लगाई जाने लगीं। यहीं से बिरसा मुंडा आदिवासियों के रहनुमा बनकर उभरते हैं।
भारत सरकार ने 1988 में बिरसा मुंडा पर स्टाम्प जारी किया गया था।
‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानी ‘हमारा देश, हमारा राज’
इसी बीच अंग्रेजों ने ‘इंडियन फॉरेस्ट एक्ट’ 1882 लागू कर दिया। जो जंगल के दावेदार थे, उनको ही जंगलों से बेदखल कर दिया गया। इसने आग में घी का काम किया। यह देख बिरसा ने 20 साल की उम्र में हथियार उठा लिए। साथ ही मुंडा राज की घोषणा हो गई। नारा दिया गया- ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’। साथ ही कहा जाता कि महारानी राज टुडू जाना मतलब अंग्रेज महारानी का राज खत्म हो गया है। मुंडा रैयतों यानी किराये के किसानों को लगान न देने का आदेश देते हैं।
उस वक्त के रोमन कैथोलिक मिशन, सर्वदा, के फादर हाफमैन लिखते हैं- ‘यह एक सच्चाई थी कि न सिर्फ मुंडा, बल्कि उरांव समुदाय के लोग बड़ी संख्या में बिरसाइत बन रहे थे। अचानक उस धर्मगुरु और उसके शिष्यों ने यह घोषणा की कि आकाश से जल्द ही आग बरसेगी और जो बिरसा के अनुयायी बन चुके हैं, उन्हें छोड़कर सभी जलकर राख हो जाएंगे। इसके बाद झारखंड के चलकद और उसके आसपास के पहाड़ विशाल छावनी में बदलने शुरू हो गए। लोग चावल और खाने के बाकी सामानों को पहाड़ों पर ले जाने लगे।’
अंग्रेज अफसरों को लगा कि यह तो खुद भगवान बनता जा रहा है। ऐसे में उस वक्त के रांची के SP मि. पियर्स पुलिस के दस्ते के साथ चलकद पहुंचे और 24 अगस्त 1895 की रात बिरसा को गिरफ्तार कर लिया। बिरसा को उनके 15 शिष्यों के साथ रांची ले जाया गया, वो भी पैदल। इस दौरान उन्हें जंजीरों से जकड़ रखा गया था।
2 साल जेल की सजा होती है
रांची में मुंडा पर IPC की धारा 505 के तहत मुकदमा चलाया जाता है और उन्हें 2 साल की जेल होती है। इससे कुछ वक्त के लिए इलाके में खामोशी छा जाती है, लेकिन यह खामोशी आने वाले तूफान की खामोशी साबित होती है।
अगस्त 1897 में बिरसा ने अपने साथ करीब 400 आदिवासियों को लेकर एक थाने पर हमला बोल दिया। 28 जनवरी 1898 में रांची के निकट चुटिया के हिंदू मंदिर में तोड़फोड़ होती है। इस सिलसिले में कुछ मुंडा नेताओं को गिरफ्तार किया जाता है। गिरफ्तार किए लोग दावा करते हैं कि उन्होंने बिरसा भगवान के कहने पर ऐसा किया है। ब्रिटिश पुलिस फिर से बिरसा के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी करती है, लेकिन पुलिस उन्हें पकड़ नहीं पाती है।
‘उलगुलान’ क्रांति का ऐलान होता है
आगे की कहानी पढ़ने से पहले आप आदिवासी कवि हरीराम मीणा की यह कविता पढ़िए…
‘मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूं
पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुला’
25 दिसंबर 1899 का दिन था। 7 हजार के करीब पुरुष और महिलाएं जुटते हैं। बिरसा मुंडा इस दौरान ‘उलगुलान’ क्रांति का ऐलान करते हैं। उलगुलान का अर्थ है भारी कोलाहल एवं उथल-पुथल यानी जल, जंगल, जमीन पर हक की लड़ाई। ये जल्द ही खूंटी, तामार, बसिया और रांची में फैल जाती है। मुर्हू में एंग्लिकन मिशन और सरवाड़ा में रोमन कैथोलिक मिशन इसके मुख्य टारगेट थे। इस दौरान घोषणा होती है कि हमारे असली दुश्मन ब्रिटिश हैं, न कि ईसाई बने मुंडा। साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ निर्णायक जंग का ऐलान होता है। दो साल तक अंग्रेजों से जुड़े महत्वपूर्ण स्थानों पर हमले किए जाते हैं।
5 जनवरी 1900 को बिरसा के समर्थक एत्केडीह में दो पुलिस कांस्टेबलों की हत्या कर देते हैं। 7 जनवरी को खूंटी पुलिस स्टेशन पर हमला कर एक कांस्टेबल की हत्या कर देते हैं और स्थानीय दुकानदारों के घरों में तोड़फोड़ करते हैं। 1897 से 1900 के बीच आदिवासियों और अंग्रेजों के बीच कई लड़ाईयां हुईं। पर हर बार अंग्रेजी सरकार ने मुंह की खाई।
आदिवासियों को डोंबरी बुरू पहाड़ी पर क्रांति के लिए तैयार रहने को कहते बिरसा मुंडा। -प्रतीकात्मक फोटो
जनवरी 1900 में मुंडा और अंग्रेजों के बीच आखिरी लड़ाई
9 जनवरी 1900 के दिन हजारों मुंडा तीर-धनुष और परंपरागत हथियारों के साथ डोंबरी बुरू पहाड़ी पर इकट्ठा होते हैं। वह इन आदिवासियों को क्रांति के लिए तैयार होने को कह रहे थे। अंग्रेजों को इसका पता चल जाता है। इसके बाद स्थानीय कमिश्नर, ए फोब्स, और डिप्टी कमिश्नर एच सी स्ट्रेटफील्ड क्षेत्र में बढ़ते विद्रोह को दबाने के लिए 150 सुरक्षा बलों के साथ डोंबरी बुरू पहाड़ी को घेर लेते हैं। दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध होता है। अंग्रेज बंदूकें और तोप चला रहे थे और बिरसा मुंडा और उनके समर्थक तीर बरसा रहे थे। लेकिन तोप और बंदूकों के सामने तीर-कमान जवाब देने लगे।
25 जनवरी 1900 में स्टेट्समैन अखबार की खबर के मुताबिक, इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे। कहते हैं कि इस नरसंहार से डोंबारी पहाड़ी खून से रंग गई थी। लाशें बिछ गई थीं और शहीदों के खून से डोंबारी पहाड़ी के पास स्थित तजना नदी का पानी लाल हो गया था। इस युद्ध में अंग्रेज जीत तो गए, लेकिन बिरसा मुंडा उनके हाथ नहीं आए थे।
500 रुपए के इनाम के लिए अपनों ने ही धोखा दिया
बिरसा पर अंग्रेजों ने 500 रुपए का इनाम रखा था। उस समय के हिसाब से ये रकम काफी ज्यादा थी। कहा जाता है कि बिरसा की ही पहचान के लोगों ने 500 रुपए के लालच में उनके छिपे होने की सूचना पुलिस को दे दी। आखिरकार बिरसा 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर से गिरफ्तार कर लिए गए। अंग्रेजों ने उन्हें रांची की जेल में कैद कर दिया। कहा जाता है कि यहां उनको स्लो पॉइजन दिया गया। इसके चलते 9 जून 1900 को वे शहीद हो गए।
महान उपन्यासकार महाश्वेता देवी अपने उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में लिखती हैं- ‘सुबह 8 बजे बिरसा मुंडा खून की उल्टी कर, अचेत हो गया। बिरसा मुंडा- सुगना मुंडा का बेटा; उम्र 25 साल-विचाराधीन कैदी। 3 फरवरी को बिरसा पकड़ा गया था, किन्तु महीने के अंतिम हफ्ते तक बिरसा और अन्य मुंडाओं के खिलाफ केस तैयार नहीं हुआ था। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत सी धाराओं में मुंडा पकड़ा गया था, लेकिन बिरसा जानता था उसे सजा नहीं होगी,’ डॉक्टर को बुलाया गया उसने मुंडा की नाड़ी देखी। वो बंद हो चुकी थी। बिरसा मुंडा नहीं मरा था, आदिवासी मुंडाओं का ‘भगवान’ मर चुका था।’
बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर ले जाती ब्रिटिश पुलिस।
बिरसा आंदोलन में हुए थे शहीद
जियूरी के अलावा गुट्टुहातू गांव का भी बड़ा योगदान रहा है. इसी संघर्ष में गुटुहातू गांव के हति राम मुंडा और हाड़ी राम मुंडा मारे गये थे. ये दोनों मंगन मुंडा के पुत्र थे और दोनों बेटे बिरसा आंदोलन में शहीद हो गये थे. कहा तो यह भी जाता है कि इन दोनों में से एक हति राम मुंडा गंभीर रूप से घायल थे और उन्हें इसी हालत में अंग्रेजों ने जिंदा दफना दिया था. मंगन मुंडा के घर में रहनेवाले लेकुआ मुंडा भी सईल रकब गोलीबारी में मारे गये थे.
क्रूर थे अंग्रेज अफसर
अंग्रेज अफसर इतने क्रूर थे कि उन्होंने महिलाओं को भी गोली मार दी. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में झारखंड क्षेत्र में एक गांव की तीन महिलाओं का पुलिस की गोली से शहीद होने का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता. झारखंड का इतिहास ऐसे बहादुरों की शहादत से भरा पड़ा है, लेकिन दुर्भाग्य ये है कि इतिहास में इनका उल्लेख नहीं हुआ. इसका नतीजा यह हुआ कि आज इन गांवों के लोग भी नहीं जानते कि उनके पुरखों का कितना बड़ा योगदान रहा है.
बिरसा आंदोलन के गुमनाम शहीद
इन वीरों के अलावा बिरसा के आंदोलन में कई और आदिवासी शहीद हुए थे, लेकिन वे गुमनाम हैं. इनमें से कई तो फायरिंग में घायल हो गये थे, जिन्होंने बाद में दम तोड़ दिया था. कुछ गिरफ्तार हुए, जिन्हें जेल में प्रताड़ित किया गया, जिससे उनकी मौत हो गयी. कर्रा के डूना मुंडा, डेमखानेल के घेरिया मुंडा, टेमना गांव के मालका मुंडा, तोरपा के मानदेव मुंडा, जनुमपीढ़ी के नरसिंह मुंडा और सांदे मुंडा, पातर मुंडा, उलिहातू के सुगना मुंडा, चक्रधरपुर के सुखराम मुंडा (आजीवन कारावास के दौरान जेल में मौत) आदि हैं. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इन गुमनाम नायकों को खोज निकालने-सम्मान देने का वक्त आ गया है और यही बिरसा मुंडा के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
आज भी बिहार, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाता है।