आर्टिकल : भारत में इस्लाम और ईसाई धर्म का प्रसार
मैंने कई जगह पढ़ा है कि भारत में इस्लाम और ईसाई धर्म इसलिए फैले, क्योंकि इन्हें विदेशी शासकों यानी मुग़लों और अंग्रेज़ों का साथ मिला, जिन्होंने ज़ोर-ज़ुल्म से इनका प्रसार किया। यह भी कहा जाता है कि प्राचीन काल में अफ़ग़ानिस्तान से लेकर थाईलैंड तक हिंदू थे, जो आज भारत के कुछ राज्यों तक रह गए हैं।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि जिसके पास निरंकुश सत्ता होती है, वह कम/ज़्यादा मनमानी करता ही है। फिर चाहे शासक का धर्म कोई भी हो। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है। हमारे पास सरकारों का विरोध करने के जितने अधिकार आज हैं, उतने किसी राजा-बादशाह के ज़माने में कभी नहीं थे।
आज देश में लोकतंत्र है। राजा-बादशाह इतिहास में गुम हो गए। आज भी हर साल बहुत लोग इस्लाम कबूल कर रहे हैं, ईसाई धर्म ग्रहण कर रहे हैं। क्या मुग़ल और अंग्रेज़ शासक अपनी मौत के दशकों/सदियों बाद भी यह सब करवा रहे हैं?
कोई व्यक्ति किस धर्म को स्वीकार करता है, उसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। मैंने जो देखा, समझा, जाना उसके आधार पर कह सकता हूं कि भारत में इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के पीछे इन दोनों समुदायों की सामाजिक संरचना को देखना बहुत ज़रूरी है।
मैं एक आसान-सा उदाहरण देकर समझाता हूं।
मैं ब्राह्मण परिवार से हूं। मान लीजिए कि मैं एक मुस्लिम या ईसाई लड़की से शादी कर लेता हूं। मैं ‘अपने’ लोगों को जितना जानता हूं, उसके आधार पर 101 प्रतिशत विश्वास के साथ कह सकता हूं कि वे उस लड़की को कभी हृदय से स्वीकार नहीं करेंगे। हां, मेरे माता-पिता, भाई-बहन कोई भेदभाव नहीं करेंगे, क्योंकि मेरी वजह से उनके विचारों मेंं परिवर्तन आ गया है, लेकिन समाज और क़रीबी लोग उसे कभी बराबरी का दर्जा नहीं देंगे।
वे उस लड़की को किसी ख़ुशी में शामिल करना नहीं चाहेंगे और न उसके हाथ की चाय पिएंगे। अगर पीनी ही पड़े तो बेमन से पिएंगे। उसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद नहीं देंगे। वह लड़की कितनी ही सुंदर, कितनी ही शिक्षित, कितनी ही परोपकारी और कितने ही उच्च पद पर हो, पीठ पीछे मेरे लिए यही कहा जाएगा कि इस लड़के का दिमाग़ ख़राब हो गया, अपनी जाति से कोई नहीं मिली, जो इसे उठाकर ले आया! इस बात की पूर्ण संभावना है कि मेरा जातिगत बहिष्कार कर दिया जाए।
वहीं, अगर मैं इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार करूं तो वहां मेरा स्वागत बहुत ख़ुशी से किया जाएगा। मैं यह नहीं कहता कि इन दोनों समुदायों में सब लोग अच्छे हैं और कहीं कोई कमी नहीं। मैं यहां अपने समुदाय में शामिल करने के इनके तौर-तरीक़ों पर बात कर रहा हूं।
वे मुझे खुले दिल से स्वीकार करेंगे और कोई भी मुस्लिम/ईसाई यह सोचते हुए अपनी बेटी से शादी करा देगा कि हमारी लड़की इस शख़्स को ईमान में रखेगी, इसलिए वह ख़ुद तो जन्नत/स्वर्ग में जाएगी ही, पूरे घराने के लिए जन्नत/स्वर्ग के दरवाज़े खोल देगी। हम धन्य हो जाएंगे।
जब मुस्लिम/ईसाई बहुल मोहल्ले में लोगों को पता चलेगा कि फ़लां ‘पंडितजी’ ईमान ले आए हैं/प्रभु यीशु को अंगीकार कर लिया है तो वे बधाई देने आएंगे, बहुत प्रेम से मिलेंगे। ग़रीब से ग़रीब मुस्लिम/ईसाई भी यही कहेगा कि आज से आप मेरे भाई हैं, मेरे लायक़ कोई सेवा हो तो ज़रूर बताएं।
जब कोई सामाजिक कार्यक्रम होगा तो लोग मेरे साथ एकजुटता जताएंगे। वे जानना चाहेंगे कि मुझे किस बात ने इस फ़ैसले के लिए प्रेरित किया। वे अपने आराध्य की बड़ाई करेंगे और मेरी गवाही जानना चाहेंगे। वे इससे अपने ईमान में और मज़बूत होंगे तथा यह संकल्प लेंगे कि जो कोई हमारे धर्म में आएगा, उसका और अधिक आत्मीयता से स्वागत करेंगे।
.. राजीव शर्मा ..
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