मिथ्या 1 : सरदार पटेल जम्मू और कश्मीर का भारत में अधिमिलन नहीं चाहते थे?
सरदार पटेल के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वे जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय नहीं चाहते थे। जबकि उस दौर के पत्राचारों के अनुसार सरदार पटेल ही पहले ऐसे नेता थे जिन्होंने इस रियासत को भारत में शामिल करवाने की पहल की थी। इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट के बाद ब्रिटिश क्राउन की सभी भारतीय रियासतों से सर्वोपरिता (paramountcy) समाप्त हो गयी। अब उन्हें भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी एक देश का चयन करना था।
इसी प्रक्रिया के दौरान, सरदार पटेल ने महाराजा हरि सिंह को 3 जुलाई 1947 को एक पत्र लिखा, “मैं पूरी तरह से उन कठिन एवं नाजुक स्थितियों की समझता हूँ जिनसे आपका राज्य गुजर रहा है लेकिन राज्य के एक ईमानदार मित्र एवं शुभचिंतक के नाते आपको यह आश्वासन देना चाहता हूँ कि कश्मीर का हित, किसी भी देरी के बिना, भारतीय संघ एवं उसकी संविधान सभा में शामिल होने में निहित है।”
सरदार पटेल ने उसी दिन जवाहरलाल नेहरू को भी पत्र लिखकर कहा, “आप जानते है कि 15 अगस्त को भारत का विभाजन हो जायेगा और हम पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो जायेंगे। लगभग सभी रियासतों ने भारत की संविधान सभा में शामिल होने का निर्णय किया है। मुझे इस बात का एहसास है कि कश्मीर में अलग प्रकार की समस्याएँ है लेकिन उसके इतिहास एवं परंपरा को देखते हुए, मेरे अनुसार उनके पास भारत की संविधान सभा के साथ जुड़ने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है।”
सरदार पटेल नियमित रूप से महाराजा हरि सिंह के संपर्क में रहा करते थे और दोनों ने मिलकर रियासत को भारत के नजदीक लाने के हरसंभव प्रयास भी किये। सरदार पटेल ने महाराजा को आश्वस्त करते हुए 2 अक्टूबर 1947 को एक पत्र लिखा, “मैं टेलीग्राफ, टेलीफोन, वायरलेस और सड़कों के माध्यम से भारतीय डोमिनियन के साथ राज्य को जोड़ने के लिए जितना संभव होगा उतनी तेजी से प्रयास कर रहा हूँ।”
मिथ्या 2 : क्या महाराजा हरि सिंह के पास जम्मू और कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने का विकल्प था?
18 जुलाई 1947 को ब्रिटेन की संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया। अधिनियम की धारा 1 (I) के अनुसार, अगस्त के पंद्रहवें दिन, उन्नीस सौ सैंतालिस से भारत में दो स्वतंत्र डोमिनियन की स्थापना की जाएगी, जिन्हें क्रमशः भारत और पाकिस्तान के रूप में जाना जाएगा।
इस अधिनियम में रियासतों के स्वतंत्र होने सम्बन्धी कोई जिक्र नहीं है। हाँ, इतना जरुर था कि अधिनियम ने भारतीय रियासतों के ऊपर ब्रिटिश क्राउन का आधिपत्य समाप्त कर दिया। इस बारे में और अधिक स्पष्टता के लिए 25 जुलाई 1947 को वायसराय माउंटबैटन ने भारतीय राजाओं अथवा उनके प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक की।
इसी बैठक में माउंटबैटन ने स्पष्ट बताया कि रियासतें अपना मन बना लें क्योंकि वे भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी एक को स्वीकार कर सकती है। उन्होंने यह भी बताया, “आप अपनी नजदीकी डोमिनियन सरकार को ही चुन सकते है।” यानि ऐसा भी नहीं है कि कोई रियासत दिल्ली के पास है और वह मीलों दूर पाकिस्तान में शामिल हो जाएगी। माउंटबैटन ने रियासतों को यह भी समझाया कि वे उस डोमिनियन का चयन करें जोकि जनता के हित में हो। अतः नियमों के अनुसार महाराजा हरि सिंह के पास जम्मू और कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करने जैसा कोई विकल्प ही मौजूद नहीं था।
मिथ्या 3 : क्या महाराजा हरि सिंह को भारत के साथ आने में दिक्कत थी?
नहीं, महाराजा ने कभी इस बात को स्वीकार नहीं किया कि उन्हें भारत में शामिल होने में समस्या है। इसके विपरीत, वे भारत के साथ आने के लिए तैयार भी थे, जिसका खुलासा उन्होंने 31 जनवरी 1948 को सरदार पटेल को भेजे एक पत्र में किया है, “आप जानते हैं कि मैं इस विचार के साथ निश्चित रूप से भारतीय संघ को स्वीकार करता क्योंकि संघ (यूनियन ऑफ इंडिया) हमें निराश नहीं करेगा।”
एक तरफ महाराजा के पास स्वतंत्र होने का विकल्प नहीं था तो दूसरी तरफ वे पाकिस्तान के साथ भी नहीं जाना चाहते थे। जम्मू और कश्मीर रियासत के प्रधानमंत्री रह चुके मेहरचंद महाजन अपनी पुस्तक ‘एक्सेशन ऑफ़ कश्मीर टू इंडिया’ में लिखते है, “महाराजा पाकिस्तान में शामिल होने के लिए कभी तैयार नहीं थे।”
वे आगे लिखते है, “कायद-ए-आज़म श्रीमान जिन्ना के निजी पत्रों के साथ उनके ब्रिटिश सैन्य सचिव तीन बार महाराजा से मिलने श्रीनगर आए। महाराजा को बताया गया कि श्रीमान जिन्ना का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और उनके चिकित्सकों ने सलाह दी है कि वे कश्मीर में गर्मियां बिताए। वहां रुकने के लिए वे अपनी स्वयं की व्यवस्था को भी तैयार थे।
इस कदम के पीछे असली मकसद रियासत में पाकिस्तान समर्थक तत्वों की सहायता से महाराजा को पाकिस्तान के साथ अधिमिलन स्वीकार करने के लिए सहमत अथवा विवश करवाना था। अगर यह सब कुछ सफल हो जाता तो महाराजा को गद्दी से हटाकर राज्य से दूर कर दिया जाता। मगर उन्होंने [महाराजा ने] श्रीनगर में गर्मियां बिताने के जिन्ना के प्रस्ताव को विनम्रता से अस्वीकार कर दिया।”
महाराजा ने दूसरी तरफ माउंटबैटन के पाकिस्तान के साथ जाने की पेशकश को अपने तरीके से ठुकराया था। जून 1947 में माउंटबैटन ने जम्मू-कश्मीर का चार दिवसीय दौरा किया। उन्होंने पाकिस्तान में विलय के लिए महाराजा को समझाने के कई असफल प्रयास किए। माउंटबैटन ने महाराजा पर दवाब बनाया कि अगर वे पाकिस्तान के साथ जाते है तो भारत सरकार द्वारा इसे अप्रिय कृत्य नहीं माना जाएगा।
माउंटबैटन ने अपने इस प्रस्ताव पर महाराजा को सोचने का समय दिया और कहा कि मेरी यात्रा के आखिरी दिन मुझे अपना फैसला बता दीजिएगा। हालाँकि, महाराजा का तो पहले से मन था कि वे पाकिस्तान के साथ नहीं जायेंगे इसलिए उन्होंने माउंटबैटन को सीधे मना करने के बजाय उस मुलाकात से ही किनारा कर लिया। उन्होंने वायसराय को एक संदेश भेजकर कहा कि वे बीमार है और भेंट करने में असमर्थ है।
इस प्रकार जैसे भी संभव हुआ, महाराजा ने पाकिस्तान में शामिल होने के जिन्ना और माउंटबैटन के दवाब का हरसंभव प्रतिकार किया लेकिन तब तक जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री रामचंद्र काक ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को आश्वासन दे दिया था कि रियासत का अधिमिलन पाकिस्तान के साथ ही होगा।
राज्य मंत्रालय के सचिव, वीपी मेनन अपनी पुस्तक ‘द स्टोरी ऑफ़ द इंटीग्रेशन ऑफ़ द इंडियन स्टेट्स’ में काक के इरादों का वर्णन इस प्रकार करते है, “जम्मू और कश्मीर के प्रधानमंत्री, पंडित रामचंद्र काक उस समय दिल्ली में थे। पटियाला के महाराजा के सुझाव पर, हमने उन्हें इस प्रकार के एक सम्मेलन में आमंत्रित किया लेकिन वे इसमें शामिल हो पाने में असमर्थ रहे।
तत्पश्चात् उनकी मुलाक़ात मुझसे गवर्नर जनरल के घर पर हुई। मैंने उनसे (काक से) पूछा कि भारत अथवा पाकिस्तान में विलय के संबंध में महाराजा का क्या रवैया है? इस पर उन्होंने मुझे बेहद कपटपूर्ण उत्तर दिया। काक ने सरदार से भी मुलाकात की। मैं न उस व्यक्ति को और न ही उसके खेल की गहराई समझता हूँ। बाद में, लॉर्ड माउंटबैटन ने काक और जिन्ना के बीच एक मुलाकात की व्यवस्था की।” अतः काक की इन संदिग्ध गतिविधियों के कारण महाराजा ने उन्हें 10 अगस्त 1947 को प्रधानमंत्री के पद से हटा दिया।
मिथ्या 4 : स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट इसलिए किया जिससे हरि सिंह स्वतंत्र होने की कोशिश कर सके?
दरअसल, महाराजा के सन्दर्भ में यह कहना ही होगा कि जो परिस्थितियां जम्मू और कश्मीर में थी, ऐसे में उनके लिए एकतरफा निर्णय लेना आसान नहीं था। वैचारिक तौर पर तो महाराजा पाकिस्तान के खिलाफ मन बना चुके थे लेकिन रियासत का सड़क एवं संचार पाकिस्तान की सीमा से अधिक जुड़ा हुआ था। वन संसाधन, विशेष रूप से इमारती लकड़ी जिसका रियासत के राजस्व में महत्वपूर्ण योगदान था, उसका अपवाहन पाकिस्तान की ओर बहने वाली नदियों के माध्यम से होता था।
इसके अलवा, भारत के साथ अधिमिलन से गिलगित और पाकिस्तान के समीप वाले इलाकों में प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं उत्पन्न हो सकती थी। महाराजा की चिंताएं तब और बढ़ गयी जब उन्हें चित्राल, हुंजा और अन्य सामंती जागीरदार लगातार टेलीग्राम भेजकर दबाव बना रहे थे कि उन्हें पाकिस्तान में शामिल होना चाहिए।
इसलिए महाराजा ने स्थितियां अनुकूल होने तक भारत और पाकिस्तान के साथ कुछ समय के लिए विकल्प के तौर पर स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट करना उपयुक्त समझा। 12 अगस्त 1947 को रियासत ने स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट की पेशकश की और पाकिस्तान ने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया। भारत सरकार ने एग्रीमेंट को स्वीकार करने से इनकार नहीं किया बल्कि उसकी शर्तों पर बातचीत करने के लिए एक प्रतिनिधि दिल्ली भेजने की इच्छा व्यक्त की।
मिथ्या 5 : भारत ने जम्मू कश्मीर का जबरन विलय किया?
नहीं, जबरन विलय के प्रयास पाकिस्तान सरकार द्वारा किये गए। एक तरफ उन्होंने स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का उल्लंघन कर रियासत के जन-जीवन को विफल करने के प्रयास किये तो दूसरी तरफ अपनी अधीरता के कारण जम्मू और कश्मीर पर युद्ध थोप दिया। इन पाकिस्तानी सैनिकों ने रास्ते में जो कुछ भी मिला उसे लूट लिया, अनगिनत नरसंहार किये और आगजनी की। 21 अक्तूबर के आसपास वे श्रीनगर के समीप पहुँच गए थे।
तत्कालीन प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन ने 23 अक्टूबर 1947 को सरदार पटेल को हमले की भयावह जानकारी देते हुए कहा, “पूरी सीमा धुआं और लपटों में हैं। यह वृत्तांत जले हुए घरों, लूट, अपहरण की गई महिलाओं और सामूहिक नरसंहार का है। सीमा से 4 मील अंतर्गत हिंदुओं और सिक्खों के 75 प्रतिशत से अधिक घरों को जला दिया गया है; पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को मार दिया गया हैं।”
इन परिस्थितियों को देखते हुए, महाराजा ने 24 अक्टूबर 1947 को भारत सरकार से सहायता के लिए संपर्क किया। उस समय, भारत के साथ रियासत का सैन्य तथा राजनैतिक समझौता नहीं था। इसलिए माउंटबैटन की अध्यक्षता में नई दिल्ली में रक्षा समिति की तत्काल बैठक बुलाई गयी, जहाँ महाराजा की मांग पर हथियार एवं गोला-बारूद की आपूर्ति का विचार किया गया।
इसी बैठक में माउंटबैटन ने सुझाव दिया था कि जब तक जम्मू और कश्मीर विलय स्वीकार नहीं करता है तब तक वहां सेना भेजना जोखिम भरा हो सकता है। इस बैठक के बाद, वीपी मेनन को थल सेना और वायु सेना के एक-एक प्रतिनिधि के साथ वस्तुस्थिति के आंकलन और प्रत्यक्ष विवरण प्राप्त करने के लिए श्रीनगर भेजा गया। अगले दिन, मेनन ने खराब हालातों की जानकारी दी और बताया कि अगर भारत ने शीघ्र सहायता नहीं की तो सब समाप्त हो जायेगा।
मेनन की श्रीनगर यात्रा सम्बन्धी पर रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए रक्षा समिति की नौवीं बैठक 26 अक्टूबर की सुबह 11 बजे बुलाई गयी। सरदार पटेल भी वहां मौजूद थे। मेनन की रिपोर्ट के आधार पर समिति ने सरदार पटेल के अधीन राज्यों के मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह महाराजा से अधिमिलन दस्तावेज पर हस्ताक्षर प्राप्त कर ले।
अतः मेनन एकबार फिर श्रीनगर वापस गए और इस बार 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू और कश्मीर का भारत के साथ अधिमिलन पत्र पर महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर लेकर दिल्ली वापस लौटे। इस प्रकार जम्मू और कश्मीर का अधिमिलन तय प्रक्रिया के अनुसार भारत के गवर्नर-जनरल माउंटबैटन द्वारा उसी तरह स्वीकार किया गया जैसा अन्य रियासतों के साथ किया गया था।