‘आजादी के बाद सबसे ज्यादा जरूरी यह था कि समाज के उन तबकों को मुख्यधारा में लाया जाए जो सदियों से पिछड़े थे। चंबल के डाकू भी किसी न किसी मजबूरी का शिकार थे। चंबल के डाकुओं को सरेंडर के लिए प्रेरित करने के लिए 1972 में गांधीवादी चिंतक डाॅ. एसएन सुब्बाराव, नारायण भाई देसाई आदि बीहड़ों में शांति शिविर लगा रहे थे। मैं 22 साल की थी। मैंने एक डाकू से पूछा- तुमने कितनी हत्याएं की हैं ? डाकू ने जवाब दिया- जितनी तुमने रोटियां खाई हैं, उससे भी ज्यादा।’
आजादी के बाद समाज में फैली बुराइयों के लिए पूरा जीवन समर्पित करने वाली आशा बोथरा (80) ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अपने अनुभव दैनिक भास्कर से साझा किए। आशा जोधपुर की फलोदी तहसील के खींचन गांव की हैं। वे वर्धा आश्रम (महाराष्ट्र) की पहली महिला अध्यक्ष हैं।
इंडिपेंडेंस डे पर आशा बोथरा के संघर्ष की कहानी, जिन्होंने चंबल के डाकुओं तक को सुधार दिया…
चंबल के बीहड़ों के अनुभव को लेकर वे बोलीं- 1968 से 1972 के बीच हमने पिछड़े लोगों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने का काम किया। जिन डाकुओं का नाम सुनकर लोग कांप जाते थे। उन डाकुओं को सरेंडर कराया और समाज से कनेक्ट किया। दिग्गज समाज सुधारकों की टोली के साथ मैं भी चंबल के बीहड़ों में पहुंची। उस वक्त 22 साल की थी। बीहड़ में मैं घबराई सी रहती थी। फिर भी काउंसलिंग की। शिविर के दौरान डकैतों के एक दल ने समाज में वापसी का फैसला किया था। हम उन्हें हथियार छोड़ने के लिए प्रेरित करते थे। जोधपुर में भी इसी तरह के कैंपों में डाकुओं को डकैती का रास्ता छोड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्हें सर्वोदय परिवारों से मिलवाया। (गांधी, विनोबा के मूल्यों को मानने वाले को सर्वोदयी कहा जाता है।)
उस समय डाकू रहे तहसीलदार सिंह और लक्ष्मण सिंह से मैंने कई सवाल पूछे थे। एक डाकू जो अपराध का रास्ता छोड़कर हमारे साथ जुड़ चुके थे, उनसे मैंने पूछा था कि अपने जीवन में आपने कितनी हत्याएं की हैं। तब उन्होंने जवाब दिया था- जितनी तुमने रोटियां खाई हैं उससे भी ज्यादा। इस जवाब से मैं सिहर उठी थी। मध्य प्रदेश के मुरैना में जौरा नाम की जगह पर डॉ. सुब्बाराव ने गांधी आश्रम शुरू किया था। टारगेट था चंबल के बीहड़ों में छिपे डकैतों को सरेंडर कराना। हम भी इस अभियान में शामिल थे। मैं खुद कई शिविरों में गई। सुब्बारावजी की प्रेरणा से 672 खूंखार डाकुओं ने सरेंडर किया था।
एक डाकू माधोसिंह की गैंग में तो 400 डकैत थे। उस तक पहुंचना नामुमकिन था। सुब्बारावजी उसे सरेंडर कराने अकेले पहुंच गए। नहीं माना तो दोबारा माधोसिंह के परिवार को लेकर पहुंचे। माधोसिंह के अलावा बीहड़ों में उस वक्त मलखान सिंह और मोहर सिंह जैसे डाकुओं का बोलबाला था। उनकी काउंसलिंग करने के लिए भी उन्हीं के परिवार का सहारा लिया। नतीजा दुर्दान्त डाकुओं ने सरेंडर कर दिया।
इसीलिए सुब्बारावजी को चंबल का गांधी कहा जाता है। उन्हीं के प्रयासों से जौरा गांधी आश्रम के पास पगारा गांव में एक साथ 70 डाकुओं ने सरेंडर किया था। इस मौके पर आचार्य विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण व मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चन्द्र शेट्टी भी मौजूद थे। सुब्बारावजी से प्रेरणा पाकर 1972 के बाद 1989 के दौर में मैंने बिहार के पूर्णिया जिले में समाज सुधारकों शुभमूर्ति, रमण और उर्मिला मराठे के साथ नक्सलियों को शांति व अहिंसा का पाठ पढ़ाया।
जोधपुर की समाजसेवी, समाज सुधारक आशा बोथरा को नवंबर 2022 में महात्मा गांधी द्वारा स्थापित किए आश्रम वर्धा (महाराष्ट्र) की पहली महिला अध्यक्ष बनाया गया।
दलितों के साथ खाना खाया तो समाज से बहिष्कृत हुईं
अब बात 1961 की। मैं महज 15 साल की थी। यह वह दौर था जब महिलाओं को न तो घर से बाहर निकलने दिया जाता था और न ही उन्हें कुछ करने की आजादी थी। इस बीच दलित बच्चियों को पढ़ाने का जिम्मा उठाया। छूआछूत मिटाने के लिए जब दलितों के साथ खाना खाया और उनके घर गई तो मुझे मेरे ही समाज से निकाल दिया गया। राजस्थान के कई इलाकों में घूमकर घूंघट प्रथा को हटाने का काम भी किया।
आशा की कहानी, उन्हीं की जुबानी..
मेरे पिता त्रिलोक चंद गुल्लेछा और मां छगन की शादी 1946 में हुई। शादी से 2 साल पहले 1944 में पिता कोलकाता में थे और न्यू ऐसेटिक के नाम से होजरी का बिजनेस करते थे। 26 सितम्बर 1950 को मेरा जन्म हुआ। जोधपुर की फलोदी तहसील का खींचन हमारा पैतृक गांव है। मां इसी खींचन गांव की राजस्थान की पहली महिला सरपंच निर्वाचित हुईं। घर में हमेशा से ही माता-पिता सामाजिक बुराइयों को मिटाने की बात करते थे। पिता गांधीवादी विचारों के थे। गांधी जी के विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिए पिता 1955 में कोलकाता में अपना सारा बिजनेस छोड़कर खींचन (जोधपुर) आ गए। मेरी प्रारंभिक एजुकेशन खीमेल गांव में हुई। खीमेल पाली जिले में रानी पंचायत समिति का गांव है।
और, ये ही वो दौर था जब मेरा जीवन बदलने लगा। जब मेरे परिवार ने समाज में फैली कुरीतियों, छुआछूत व भेदभाव को दूर करने और बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए काम किया तो विरोध शुरू हो गया। मेरे परिवार ने दलितों के घर पर भी खाना खाया। और, जब ये बात गांव के लोगों को पता चली तो परिवार को समाज से बहिष्कृत कर दिया। जिस स्कूल में मैंने एडमिशन लिया, वह स्कूल खाली हो गई। सामाजिक कार्यक्रम में आने-जाने की मनाही थी। इतना ही नहीं, लोग मेरे हाथ का छुआ नहीं खाते थे। यह बातें इतनी चुभी कि मुझे लगने लगा था कि अब मुझे भी इसी दिशा में काम करना है।
गांव में दलितों को एजुकेशन देने के लिए पहले स्कूल की स्थापना
पिता जी ने वंचितों को शिक्षा देने के लिए खींचन गांव में सर्वोदय स्कूल की स्थापना की। इसी स्कूल में मैंने भी प्रारंभिक पढ़ाई शुरू की। छुआछूत को मिटाने के लिए वो दलित समाज के लोगों के घरों में जाते थे। उनके साथ बैठते और बातचीत करते थे।
पिता ने शिक्षा, स्वास्थ्य व स्वच्छता को बढ़ावा देने और छुआछूत मिटाने का काम किया। इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी जाति के अन्य लोग उनके पास भी नहीं बैठते थे। जब आगे की पढ़ाई के लिए मैं कक्षा 5 के बाद सर्वोदय से दूसरे स्कूल में एडमिशन के लिए गई तो पूरा स्कूल खाली हो गया। हमें कहा गया कि यह छुआछूत वाले लोग हैं। इनके साथ नहीं बैठना है। इस घटना का मेरे दिमाग पर गहरा असर हुआ। यहीं से मेरा जीवन बदलना शुरू हुआ। आचार्य विनोबा भावे के मार्गदर्शन में तरुण शांति सेना की सक्रिय छात्रा के रूप में 1970 के दशक में वर्धा, शिमोगा, खड़गपुर, वाराणसी, जोधपुर में कई रचनात्मक शिविरों में भाग लिया।
जूते गांठने का भी किया काम
महात्मा गांधी कहते थे कोई भी काम छोटा-बड़ा नहीं होता। उनके विचारों और सिद्धांतों का मेरे ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। पिता ने भी समाज के हर वर्ग को साथ लेकर काम किया। मैंने समाज के निम्न वर्ग के साथ जूते गांठने और जूते बनाने का काम भी किया। इन सब कामों में बहुत चुनौतियां होती हैं, लेकिन इनसे जीवन को गढ़ने का, बनाने का और आगे बढ़ने का मौका मिलता है।
मेरे रिश्तेदार मुझे देख मुंह मोड़ लेते थे
आज से पहले के दौर में बेटियों के साथ भेदभाव की खबरें आम थी। लोग बेटों को ज्यादा अहमियत देते थे। मैंने उन्हें समझाया कि बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं है। कई बार ग्रामीण समझ जाते थे तो कई लोग औरतों को घर से बाहर निकालने पर विरोध भी करते थे।
मैं जब इस काम में जुटी तो मेरे आस–पास के लोगों ने काफी विरोध किया। मेरे रिश्तेदारों ने ही मेरे ऊपर सवाल उठाए। कई बार लोग मुझे देख कर भी इग्नोर कर देते थे। मुझे सामने से आता देखकर लोग मुंह मोड़ लेते थे। मेरे काम को लेकर कई बार मेरा मजाक उड़ाया गया।
मैंने सिर्फ दिल की सुनी
सर्वोदय और गांधी के संदेशों को लेकर देश भर में मेरा आना-जाना लगा रहता था। कई बार महीनों घर नहीं आ पाती। सर्वोदय परिवार के लोगों के साथ जब कार्यक्रमों में जाती थी तो कई लोगों को मेरा इस तरह से आना-जाना अच्छा नहीं लगता था। महिला-पुरुष के साथ में काम करने को लेकर हमें कभी भेद नहीं लगा। सर्वोदय में आने के बाद भयमुक्त होकर काम करने की ताकत मिली। इसी ताकत के बल पर मैं अपने संकल्प को लेकर काम कर सकी।
घर ही बना गेस्ट हाउस
1980 के दशक में जब पटना में हम सभी सर्वोदय टीम के साथ काम कर रहे थे। वहां किसी गेस्ट हाउस में रुकने के बजाय एक ही घर या हाॅल में लाइन से बिस्तर बिछाकर सो जाते थे। इसलिए उन्होंने घर को भी सार्वजनिक घर का नाम दे रखा है। यहां पर कई लोग आते हैं और इसी घर में रुकते हैं। सर्वोदय परिवार के अलावा भी यहां उनसे मिलने कोई आता है तो उसे इसी घर में रुकवाया जाता है।
मेरी मां ने महिलाओं को बिना घूंघट रहना सिखाया
मेरी मां छगन गुल्लेछा 1961 में राजस्थान की पहली महिला सरपंच बनीं। वे खींचन गांव की सरपंच थीं। यह वो दौर था जब महिलाएं बिना पर्दा या घूंघट के बाहर नहीं आ सकती थीं।
मां ने जब यह देखा तो उन्होंने इस परंपरा को बदलने का फैसला किया। उन्होंने गांव में लोगों को शिक्षा से जोड़ा। जो लोग स्कूल नहीं जाते उन्हें शिक्षा का महत्व बताया। गांव में ऐसा सिस्टम बनाया कि कोई कोर्ट-कचहरी नहीं जाता था। इसी बीच 1990 में उनका निधन हो गया। मेरी मां ने ही 1976 में जोधपुर में मीरा संस्थान की स्थापना की थी। संस्थान से जुड़ने के लिए मैं 1984 में जोधपुर आई। आंगनवाड़ी प्रशिक्षण केंद्र चलाया। महिलाओं को रोजगार से जोड़ने के लिए काम किया। इस संस्थान से अब तक 50 हजार से अधिक महिलाएं लाभान्वित हो चुकी हैं। लोग एचआईवी पीड़ितों को छूने से भी डरते हैं। मैंने उदयपुर में उन्हीं के बीच काम किया।
महिलाएं ही अपनी आवाज क्यों उठाएं
आज के हालात को लेकर कहा- हर बार महिलाएं ही अपने हक की आवाज क्यों उठाएं। हर निर्णय को लेने में पुरुष और महिला की बराबर भागीदारी होती है। महिला-पुरुष को साथ बैठना चाहिए। हमने महिलाओं के लिए निर्भीक समाज नहीं दिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था- जब तक हमारे देश के युवा महिलाओं का सम्मान करना नहीं सीखेंगे तब तक इस तरह की घटनाएं सामने आती रहेंगी।
महात्मा गांधी ने 1936 में की आश्रम की स्थापना
महाराष्ट्र के नागपुर से 70 किलोमीटर दूर वर्धा में महात्मा गांधी ने 1936 में इस आश्रम की स्थापना की थी। यह महात्मा गांधी की कर्मभूमि रही है। यहीं पर बापू ने जीवन के 12 वर्ष बिताए। जीवन के अंतिम क्षणों में गांधी जी इस आश्रम में रहे थे। यहीं पर सबसे पहले उन्होंने आदि निवास बनाया था। इसमें गांधी जी अपने साथियों के साथ रहते थे। वर्तमान में यहां पर खादी ग्रामोद्योग विभाग, गो सेवा, जैविक खेती, कौमी एकता, आरोग्य शिक्षा, राष्ट्रभाषा, आर्थिक समानता जैसे रचनात्मक कार्य होते हैं। यहां देश-विदेश से रोजाना 2 से 3 हजार लोग आते हैं। आश्रम में लगभग 250 लोग रहते हैं।
इस आश्रम की स्थापना से लेकर आज तक कोई महिला अध्यक्ष नहीं बनी थी। पहली बार आश्रम की महिला अध्यक्ष जोधपुर की रहने वाली आशा बोथरा को बनाया गया।