गुलाबी शहर (जयपुर) की सुरमई शाम में गुल, गुलाल और चंपई उजालोंं से लुकाछिपी करती यह अलबेले दिन गुज़रते जाते हैं। इन्हीं दिनों में कुछ त्योहार आते और चले जाते हैं। इस बार की होली भी कुछ ऐसे ही आयी और चली गयी। इस बार होली पर पूरा कलेक्ट्रेट परिसर रंगों की फागुनी छटा पर झूम रहा था। नृत्यांगनाएँ भी मस्त नग़्मों पर थिरक रही थी। जलसे में आला अफसरों के अलावा शहर की रसूखदार हस्तियाँ भी मौज़ूद थीं और इस एहतराम के साथ मौज़ूद थी कि उन्हें सलीकेदार तवायफों का मुजरा देखने को मिलेगा। लेकिन जैसे ही गीत और संगीत की महिफल शुरू हुई, फूहड़ता का माहौल बनने लगा। भेद खुलने में देर नहीं लगी कि नृत्यांगनाएँ चाँदपोल बाज़ार की महिफलों की ज़ीनत नहीं थी। महिफल में मुजरे के नाम पर परोसी जा रही फूहड़ता को लेकर नाराज़गी इतनी बढ़ी कि पूरी महिफल उदास हो गयी। बाद में आयोजकों ने माफी माँगी और िकस्सा खत्म हो गया। अलबत्ता एक नयी कहानी बेपरदा हुई कि मनोरंजन का यह नशा बेनूर हुए चाँदपोल बाज़ार की उन तवायफों ने रचा था, जो अब चौक की सीढिय़ाँ चढक़र रसिकों को रिझाने के लिए मोहल्लाई मंचों पर पहुँच गयी थीं। लेकिन इन तवायफों की भी अपनी एक मजबूरी, अपनी एक कहानी है। मगर आज परम्पारागत कोठों पर एक ऐसी नस्ल काबिज़ हो चुकी है, जो नफासत और तहज़ीब का नकली हिजाब पहनकर महिफल कल्चर का सुनहरा फरेब रचने की कोशिश में जुटी हैं। गुलाबी शहर की इस महिफल में भी ऐसी ही तवायफों को बुलाया गया था। हालाँकि चाँदपोल चौक की इन तवायफों ने राई-दुहाई देने की भी कोशिश की कि मल्लिका-ए-तरन्नुम के नाम से मशहूर नूरजहाँ को भी लाहौर की बदनाम हीरा मंडी से लाया गया था। अपने पेशे की पाकीज़गी की रहनुमाई में एक ‘नाच घर’ की संचालक माया मल्लिका का कहना था कि नरगिस की माँ जद्दनबाई बनारस की दालमंडी की मशहूर तवायफ थीं। यहाँ तक कि सायरा बानो की माँ नसीम भी कभी दिल्ली के रेड लाइट एरिया जीबी रोड की तवायफ थीं। कुल मिलाकर शिकायतों का लब्बोलुआब यह था कि आज बदलते दौर में लोग हमें नाच गर्ल कहते हैं, तो इसमेें बुरा क्या है?
एक अलग दुनिया, जहां दिन शाम ढलने के बाद शुरू होता है। जब सूरज और इंसान दिनभर की थकान के बाद घर लौटते हैं, उसी वक्त ये मोहल्ला रोशन होता है। गुलाबी रोशनी, घुंघरू की छनक, हारमोनियम के सुर और तबलों की थाप।
कभी चांदपोल इलाके के 150 तवायफाें के कोठों से हर शाम निकलने वाला ये संगीत जयपुर की फिजाओं में घुल जाता था, लेकिन आज ये संगीत कानों तक पहुंचने से पहले ट्रैफिक के शोर में गुम हो जाता है। ठीक उसी तरह जैसे ये पेशा जयपुर की चार दीवारी में दम तोड़ रहा है।
हाल ही में जयपुर विरासत फाउंडेशन और पिंकसिटी फुट प्रिंट ने एक हेरिटेज वॉक रखी। ओल्ड जयपुर की गलियों से होते हुए कुछ लोग इन तवायफों के कोठों तक पहुंचे। मैं भी इन लोगों में से एक था।
ये वक्त माइक निकाल कर सवाल जवाब करने का नहीं था- कि क्या परेशानियां हैं.. क्या दिक्कतें हैं..। डेलिगेट्स के साथ सुरों को सुनने का माहौल था और उसके पीछे के दर्द को समझने का…
हम एक कोठे के नीचे पहुंचे। चांदपोल के बरामदों की दुकानों के बीच से तंग सीढ़ियां ऊपर की ओर जा रही हैं। इन सीढ़ियों पर थोड़ी सी रोशनी के साथ बहुत सारा अंधेरा पसरा है, ठीक वैसा ही अंधेरा जैसा तवायफों की जिंदगी में है।
सीढ़ियों से होकर हम चांदपोल के सबसे बड़े कोठे में पहुंचे, यहां सुरैया बेगम मिली। वे ही इस कोठे को चलाती हैं।
आगे की कहानी, सुरैया बेगम की जुबानी…
‘मुझे 50 साल हो गए यहां रहते हुए। मैं मांड व ठुमरी गायकी, लोकगीत और भजन में पारंगत हूं। मैं खंडेला दरबार (सीकर जिले में) से हूं। आज भी मैं खुद गाती हूं, डांसर हैं मेरे पास…मेरे पास ऐसी-ऐसी डांसर है कि आप देखोगे तो कहोगे…क्या बात है। तारीफ करते नहीं थकोगे।’
‘मैं 8 साल की थी तो पिता का इंतकाल हो चुका था। सोचती थी- मेरी वालिदा(मां) तो परदानशीन हैं। 9 बहन-भाइयों को खिलाएगा कौन? भाई भी सब छोटे-छोटे, कोई 7 साल का तो कोई 5 साल का। कुछ समय बाद मेरी खाला(मौसी) मुझे चांदपोल ले आईं। यहां मैंने उस्तादों से गायन सीखा। अपनी कला के सहारे भाई-बहनों की परवरिश की, उनकी शादियां कराई।’
आज भी गाना नहीं छोड़ा
‘खंडेला में थी, तभी से गाने का शौक था। आठ साल से भी कम उम्र होगी, जब एक रोज रेडियो पर लताजी की आवाज में भजन सुना…अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम…। मुझे इतना प्यारा लगा कि ये मेरे दिल-दिमाग में छा गया। ऐसी उमंग जागी कि मैं संगीत के ही अंदर घुस जाऊं…बस।’
‘रेडियो पर जब भी भजन, गजल सुनती, अपने दिमाग में नोट कर लेती। रिहाना मिर्जा, मेंहदी हसन, गुलाम अली साब की गजलें सुनीं। पूरा-पूरा दिन गाती। एक-दो बार सुनते ही मुझे एक-एक लाइन याद हो जाती। मैं आज भी गाना छोड़ती नहीं हूं।’
पहले पूरा सम्मान था, अब कुछ लोगों के कारण हो रहे बदनाम
‘हमारा काम राजा महाराजाओं के जमाने से चलता आ रहा है। ऐसा नहीं है कि हम कहीं से उठकर आ गए। ये हमारा खानदानी पेशा है। राजा-महाराजाओं के जमाने में अलग शान थी। वे हमें ‘हुकम सा’ कहकर पुकारते थे। लहंगा-कुर्ती पहनकर या साड़ी में अदब से नृत्य और संगीत होता था। हमें बुलाने के लिए ठिकानेदार पालकियां भेजा करते थे। खुश होने पर महंगे तोहफे मिलते थे।’
‘उस जमाने की बात करूं तो गौहर बाई, बन्नो बेगम, जोरा बैगम, फरहद जहां, काली बिबो बोई, पुतली बाई, मलका बाई, लियाकत बाई, नजाकत बाई बहुत अच्छा गाती थीं। उनका बड़ा नाम था। रिहाना मिर्जा का तो इंतकाल हो चुका, लेकिन आज भी उनका नाम है। खानदानी लोग इन तवायफों का नाम आज भी जानते हैं।’
हम कलाकार, लेकिन अब ये कला बदनाम
‘हमारी पहचान खानदानी तवायफों के नाम से है। हम बाहर नहीं आते-जाते। कोई बुलाता है तो यह देखकर जाते हैं बुलाने वाले का ताल्लुक राज परिवार से है या नहीं। पुराना ठिकानेदार हो तब भी उनके बुलावे पर चले जाते हैं। गीत-संगीत और मुजरा पेश करते हैं…बस। क्योंकि ये खानदानी लोग हमारी कद्र जानते हैं। पूरे अदब के साथ आदर करते हैं। कभी बदतमीजी की सोचते भी नहीं हैं।’
‘सरकार सभी मुजराघरों को लाइसेंस देती है। हमारा काम शाम 7 बजे से रात 11 बजे तक का है। हमें रात 11 बजे तक संगीत बजाने की छूट है। कानूनी रूप से हमारा पेशा गलत नहीं है। आप खुद पता कर लो कि यहां कोई गलत काम होता है या नहीं। हमारे यहां कभी पुलिस नहीं आती, क्योंकि यहां कोई गलत काम होता ही नहीं है।’
‘हम कलाकार हैं, लेकिन इस कला को ऐसा बदनाम कर दिया है कि पूछो मत। इन कोठों के अलावा बाहर कोई गलत काम करता है, तो चांदपोल का नाम लेकर हमें बदनाम कर दिया जाता है, जबकि हम तो अपनी जगह पर ही रहते हैं। हम कभी अपना ठीया नहीं छोड़ते।’
क्या आपने आपकी बेटियों को नृत्य की तालीम दी
‘आजादी से पहले तक चांदपोल में 150 से ज्यादा कोठे थे। अब 30 ही बचे हैं। शायद कुछ साल और ये कला जी लेगी। उसके बाद कोई भविष्य नजर नहीं आता। एक तो अब इस कला के कद्रदान नहीं रहे। कई-कई दिन तक मुजरा देखने के लिए कोई आता ही नहीं है। दूसरा ये कि ये कला इतनी बदनाम हो गई कि कोई अपनी अगली पीढ़ी को इसमें लाना ही नहीं चाहता।’
‘मेरी 5 बेटियां हैं। मैंने ये फैसला उन पर छोड़ दिया था कि मुजरे की तालीम लेनी है या नहीं? मेरी केवल 1 बेटी है, जिसने तालीम ली। वही मुजरा पेश करती है।’
बेटियों से बात कर लो, लेकिन फोटो-वीडियो मत लेना
सुरैया के साथ उनकी दो बेटियां मौजूद थीं। इनमें एक बेटी थी, जिसने मुजरे की तालीम ली। हमने उनसे भी बात की…
‘हम जब मुजरा पेश करते हैं, तो मोबाइल अलग रखवा लेते हैं। क्योंकि कुछ लोगों ने चोरी छिपे हमारे मुजरे के वीडियो बना लिए और सोशल मीडिया पर भद्दे-भद्दे कमेंट किए। जबकि हम किसी की गलत पेशकश को बिलकुल नहीं मानते। शायद इस खीज के कारण उन्होंने ऐसा किया। यहां अब जो लोग आते हैं, वे गजल या पुराने गीतों की फरमाइश करते हैं, लेकिन अधिकतर लोग ऐसे हैं, जो बॉलीवुड की हिट मुजराबेस गानों पर डांस करने के लिए बोलते हैं।’
‘सरकार और तरह के कलाकारों को सहारा देती है और उनकी कला को प्रोत्साहन देकर जिंदा रखना चाहती है, लेकिन इस ऐतिहासिक कला की ओर ध्यान ही नहीं जाता।’
‘हम क्या करें, मुझे तो आता ही यही है, मुजरे से हमारी कमाई है। अब कमाई और सम्मान न के बराबर रह गए हैं। कोरोना में तो खाने के लाले पड़ गए थे। जैसे-तैसे जीवन बचाया।’
‘सरकार ही हमें कलाकार नहीं मानती। मैंने तो अपनी मां से मुजरा की तालीम लेने के लिए बोल दिया, लेकिन मैं अब खुद नहीं चाहती कि मेरी बेटी इस पेशे में आएं।’
(इसके बाद साजिंदे आए, सुरैया ने ‘चलते-चलते..यूं ही कोई मिल गया था सहित कुछ गाने गाए और उनकी बेटी ने मुजरा पेश किया।)
चांदपोल के कोठों का 200 साल पुराना इतिहास
इतिहासकारों के अनुसार चांदपोल के कोठों का 200 साल पुराना इतिहास है। जब जयपुर बसाया गया था, तो कोठो-तवायफों के रहने के लिए भी व्यवस्था की गई थी। उस समय आस-पास के गांवों से कलाकार आए थे। इनमें से कुछ पहले से ही रजवाड़ों से ताल्लुक रखते थे। इन्हें राजदरबार ने ही आश्रय दिया था। यहां कोठे पर उस्तादों और सुरैया बेगम ने बताया कि उस समय नावां, रींगस, चोमूं, खंडेला से हमारे पुरखे यहां आकर बस गए थे और यहीं के होकर रह गए।
कभी सजती थी महफिलें, आज 10-10 दिन तक नहीं मिलता काम
सुरैया बेगम सहित यहां अन्य घरानों को चलाने वाली महिलाओं का कहना है कि कमाई बिल्कुल भी बंधी हुई नहीं है। महीने में 20 दिन से ज्यादा तो काम ही नहीं मिलता। सालभर में काम के हर महीने का औसत 10 दिन से ज्यादा नहीं निकल पाता। यहां मुजरा देखने या सुनने का कोई फिक्स चार्ज नहीं है। कोठे में तवायफों की परफॉर्मेंस देखने के लिए जाने वाले पुराने ग्राहकों या ग्रुप से एंट्री फीस भी नहीं ली जाती, लेकिन यदि कोई नया ग्रुप आता है या सिंगल व्यक्ति आता है, तो कुछ कोठों पर एंट्री फ्री है और कुछ एंट्री फीस तय कर लेते हैं।
फ्री एंट्री में गाने की फरमाइश के हिसाब से 500 रुपए से 1000 रुपए तक लिए जाते हैं। जहां एंट्री फीस तय कर ली जाती है, तो उसमें गानों की संख्या (जिन पर परफॉर्म किया जाएगा) को निर्धारित कर लिया जाता है। इन कोठों में आमतौर पर शाम ढ़लते ही 7 बजे से 11 बजे के बीच मुजरा हो सकता है, जिसमें परफॉर्मर अलग-अलग युवतियां रहती हैं। इससे बीच-बीच में कलाकारों को आराम मिलता रहता है। यदि इस दौरान लगातार मुजरा होता है, तो 10 से 15 परफॉर्मेंस तक हो जाती हैं।
पिंक सिटी फुट प्रिंट कर रहा कला को जनता से जोड़ने का काम
एक एनजीओ पिंक सिटी फुट प्रिंट ने खत्म होती कला को लेकर चांदपोल स्थित कोठे तक वॉक और संवाद रखा। पिंक सिटी फुट प्रिंट की अपेक्षा और हिमांशु के अनुसार जब इन्होंने जयपुर के मुजराघरों के बारे में सुना तो ये चांदपोल मिलने पहुंचे थे। मिलने के बाद सोचा कि टैबू सब्जेक्ट के कारण समाज इन्हें कलाकार के तौर पर नहीं देखता। क्यों न जनता तक इनकी बात पहुंचाई जाए और ये भी जनता को अपनी बात बता सकें। तब ऐसी वॉक का विचार आया था।
तवायफों का रुतबा
300 साल बीते, जब तवायफें राजा, नवाबों की दिलरुबा, उस्ताद, रहनुमा, दार्शनिक और दोस्त हुआ करती थीं। मुजरा फूल की पंखुडिय़ों पर शबनम के कतरे की तरह होता था। जिसकी पेशबन्दी के लिए बड़ी नज़ाकत और शायस्तगी की दरकार होती थी। मुजरे की महिफलों से सजे कोठे हिना, बेला और जूही की खुशबू में रचे-बसे होते थे। पिशवाज़ पहने तवायफों की काली पलकें शरमाकर धीरे-धीरे उठती थीं, तो अच्छे-अच्छे लोग दिल थामकर बैठ जाते थे। ठुमरी के बोल गूँजते थे- ‘तीखे हैं नैनवा के बान जी धोखा ना खाना…।’ ज्यों-ज्यों रात शबाब पर आती नृत्य की गति तेज़ होती चली जाती। पाँवों के घुघरुओं के साथ हँसी की झनकार भी खनक उठती…। इसके बाद नाच शुरू होता, तो पता ही नहीं चलता कि रात कब बीत गयी? कुछ दौर गुज़रा मुजरे की यह महफिल रईसों और सेठों के लिए भी सजने लगी।
19वीं शताब्दी में जयपुर में नामवर हुई तवायफें ठेठ वेश्याएँ नहीं थीं। तवायफों के लिए सबन्दर्य सम्बन्धी धारणाएँ उस वक्त भी आज की तरह ही थीं। चंचल चितवन, अलसायी नशीली आँखें, कटीली भँवें, कुलीन नैन-नक्श, हया में डूबी चितवन, भरे हुए होठ और गदराया हुआ यौवन, बल खाती नागिन सरीखी जुल्फें, अनार जैसी गालों की लालिमा, सुराही सी गर्दन, पतली कमर… तवायफों का शास्त्रीय संगीत, उर्दू-हिन्दी शायरी और लोकगीतों में गहरा दखल होता था। उस दौर में मुल्क में सर्वधर्म समभाव और अनेकता में एकता वाली कोई जगह थी, तो वह थी तवायफ का कोठा। लेकिन कोठे पर भी एक रोक थी। वहाँ फिरका नहीं था, तबका था; एक तहज़ीब थी; मनोरंजन का एक सलीके वाला ठीया था। कोठे की सीढिय़ाँ चढऩे वाले को शुरफा (कुलीन) तो होना ही चाहिए था। यानी कोठों में दाखिले की इजाज़त उन्हीं को मिलती थी, जो रईसज़ादे हुआ करते थे। इन छैल-छबीलों की ज़रूरतों को पूरा करनेे के लिए हाज़िर जवाबी और शे’रो-शायरी की समझ ज़रूरी थी। अब वह दौर शायद नहीं रहा। अब शे’रो-शायरी, ठुमरी, दादरा, लोकगीतों की जगह फिल्मी गानों ने ले ली, जिनमें फूहड़ता आती जा रही है और शास्त्रीय नृत्य की जगह भौंडे नाच ने ले ली।
मुजरा क्या है?
कत्थक सरीखे शास्त्रीय नृत्य-गीतों में रचा-बसा नृत्य मुजरा है, जो कौशल भारत में मुगल हुकूमत की देन माना जाता है। 16वीं से 19वीं शताब्दी के बीच मुजरा सौन्दर्य और संस्कृति का प्रतीक माना जाता था। मनोरंजन का यह साधन केवल राजा-नवाबों के लिए ही था। इसमें सादगी और सालीनता मुनासिब थी। जयपुर कत्थक नृत्य का प्रसिद्ध केंद्र रहा है। कत्थक नृत्य की दो ही शैलियाँ मानी जाती हैैं- जयपुर और लखनऊ। यही वजह रही कि मुजरा भी जयपुर और लखनऊ में ही ज़्यादा परवान चढ़ा। तवायफों में एक तबका देवदासियों सरीखा होता था। मंदिरों में नृत्य गायन से सम्बद्ध होने के कारण इन्हें ‘भगतण’ कहा जाता था। समाज में इनको आदर की दृष्टि से देखा जाता था। मुजरा ठुमरी और गज़ल गायकी से सम्बद्ध होने के कारण शास्त्रीय नृत्य कत्थक पर आधारित होता था। मुजरा परम्परागत रूप से महिफलों की प्रस्तुति होती थी। इन्हें कोठा भी कहा जाता था। घरानों से जुड़ा हुआ मुजरा बेटी को माँ की विरासत के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता था। इन घरानेदार तवायफों को कुलीन वर्ग में विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इन्हें कला और संस्कृति का विशेषज्ञ माना जाता था। मुजरेवालियों में डेरेदारनियाँ बहुत ऊँचे दर्जे की तवायफें मानी जाती थीं। डेरेदारनियाँ किसी एक की पाबन्द होकर रहती थीं। जिसकी हो गईं उसके लिए और उसके दोस्तों के दिल बहलाव के लिए नाचती-गाती थीं। तहज़ीब, सलीकामंदी और शे’रो-शायरी में उनका कोई सानी नहीं होता था। इनके कोठे और हवेलियाँ शिष्टाचार और कला के केंद्र माने जाते थे।
महिफलों का दौर
तब चाँदपोल बाज़ार हुस्न की खुशबू से महकता था। घुँघरुओं की झंकार के साथ उठता सुरीला आलाप भोर में ही जाकर थमता था। कला, संस्कृति और नाच-गाना जयपुर के शासक महाराजा रामसिंह के ज़माने में खूब परवान चढ़ा। चाँदपोल बाज़ार रातों को जागता था और दोपहरी में ऊँघता था। शाम होते ही सफेद अंगरखा, चूड़ीदार पाजामा और सफेद तुर्रेदार टोपी पहनकर, पान की गिलोरियाँ चबाते खुशबुओं से सराबोर चौक की तरफ बढ़ते रईसज़ादों को पहचानना मुश्किल नहीं था। तवायफ लालन, खैरन और मुन्ना लश्कर वाली के कोठे सबसे ज़्यादा आबाद रहते थे। रईसज़ादों में भी पूरी ठसक होती थी। कोठों की सीढिय़ाँ भी ऐसे ही तय नहीं की जाती थीं। पहले कोठों पर रईसज़ादों के पैगाम पहुँचते थे। पैगाम पहुँचने के साथ ही शुरू हो जाती थी, कोठों पर उनकी अगवानी की खास तैयारियाँ। झाड़फानूसों की रोशनियाँ तेज़ कर दी जातीं। तवायफ खुर्शीद शराब के घूँट लेकर ठुमरी छेड़तीं- ‘कोयलिया मत कर पुकार, करेजवा में लगे कटार…’ तो कोठे पर गहरा सम्मोहन पसर जाता था। उस ज़माने में गोहरजान का कोठा सबसे ज़्यादा सरसब्ज़ था। गोहर की पोती शहनाज़ आज भी जीवित हैं। शहनाज़ बताती हैं कि उस ज़माने में पिशवाज़ पहनकर सलमे सितारों की टोपी लगाने वाली गोहरज़ान का बड़ा नाम हुआ करता था। जयपुर रियासत के वज़ीरेखास उनके खास मुरीद हुआ करते थे। शहनाज़ बताती हैं कि गोहरज़ान की ठुमरी- ‘तीखे हैं नैनवा के बान जी धोखा ना खाना…’ बेहद खास हुआ करती थी। बनियानी की भी अपने ज़माने में गज़ब चर्चा थी। राग भैरवी में पिरोई उनकी ठुमरी- ‘बालम तौरे रस भरे नैन…’ पर नवाब फैयाज़ खाँ इस कदर रीझे कि नथ उतराई का सौदा कर बैठे। नतीजतन घर-बार ही बिक गया। कहते हैं कि तवायफ बिब्बो कासगंज वाली मुजरा करने बैठतीं, तो लगता था जैसे आसमान से अप्सरा उतर आयी हो? महाराजा माधोसिंह के ज़माने में तवायफ मैना वज़ीरन का सबसे ज़्यादा रुतबा था। तवायफ फिरदौस को सुनने के लिए तो उनके मुरीदों की कतार लगी रहती थी। उस दौर में गली-मोहल्लों में होने वाली सरगोशियाँ और मशहूर िकस्सों से कोठों की कहानी लोगों तक पहुँचती थी। कहा जाता है कि वह बेहद सुनहरा दौर था, जब महिफलों के दरीचों से निकलकर तवायफों की खनकदार, सोज़दार आवाज़ चाँदपोल की राहदारियों में गूँजती थी, तो लोग थमकर रह जाते थे।
रस कपूर का गुरूर
जयपुर में नाच-गानों का यह सुनहरा दौर रस कपूर के साथ शुरू हुआ और अमीर उमरावों के पराभव के साथ ही खत्म हो गया। जयपुर के जौहरी बाज़ार का काँच महल आज भी रस कपूर की याद ताज़ा कर देता है। काँच महल के शीशों पर धूल की परतें जम गयीं। खिड़कियों के रंगीन शीशे दरक चुके हैं। पायल की झंकार की बजाय अब यहाँ चमगादड़ों की चीं-चीं सुनाई देती है। तख्त और तावयफों के रसीले िकस्सों की शुरुआत रस कपूर से ही शुरू हुई, तो जयपुर के इतिहास में एक-से-एक दिलफरेब कहानियाँ रिसने का सिलसिला शुरू हो गया। इन्हीं कहानियों में एक प्रेम-कथा भी है। इस प्रेम-कथा का अन्त इतना भयानक हुआ कि उस समय के लोगों के रूह काँप गयी और सुनने वाले आज भी सहम जाते हैं। उस ज़माने में कलाकारों का ठौर-ठिकाना गुणीजन खाना कहलाता था। यहीं की नृत्यांगना रस कपूर को प्रेयसी बनाकर महाराजा जगत सिंह ने रियासत में तूफान ला दिया था। प्रसिद्ध हवा महल निर्माता महाराजा सवाई प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद जयपुर के राजा बने उनके पुत्र जगत सिंह पर रस कपूर का जादू इस कदर छाया कि राजकाज भूलकर उसी के मोहपाश में बँध गये। रस कपूर जौहरी बाज़ार में वर्तमान फल मण्डी स्थित शीशमहल में रहती थीं। गुणीजन खाने की पारो बेगम सेे रस कपूर ने नृत्य व गायन सीखा; इसके बाद वह दरबार की संगीत महिफलों में जाने लगीं। जगत सिंह ने रस कपूर को महिफल में पहली बार देखा और वे उसकी अनुपम सुन्दरता पर मर-मिटे। एक समय ऐसा आया, जब रस कपूर जो कहतीं, वही रियासत में होता। वह महाराजा के साथ सिंहासन पर दरबार में बैठने लगीं और उसे सामंतों की जागीरी के फैसले करने का अधिकार मिल गया। महाराजा जगत सिंह ने अपने जन्मदिन पर रस कपूर के लिए हवामहल में रस विलास महल भी बनवा दिया। महाराजा ने लोकनिंदा की परवाह नहीं की और प्रेयसी को अपने साथ हाथी के होदे पर बिठाकर नगर में फाग खेलने निकल गये। सामंतों ने कई तरह के आरोप लगाकर रस कपूर को नाहरगढ़ िकले में कैद करवा दिया। इतिहासकार आनंद शर्मा के मुताबिक, वर्ष 1818 में अंग्रेजों सेे सन्धि के बाद जगत सिंह को दुश्मनों से कुछ राहत मिलने लगी थी, तब राजमहल के शत्रुओं ने षड्यंत्र रचकर जगत सिंह की हत्या करवा दी। जगत सिंह की मृत्यु पर अंतिम दर्शन के लिए रस कपूर वेश बदलकर नाहरगढ़ िकले से निकल भागीं और गेटोर श्मशान में जगत सिंह की धधकती चिता में कूद गयीं। लेकिन कहते हैं कि रस कपूर की प्रेतात्मा आज भी नाहरगढ़ के िकले में भटकती है।
डांस बार की कहानी
अब बड़े-बड़े लोग, बिगड़े हुए साहबज़ादे डांस बारों में जाते हैं। आज देश में अनगिनत डांस बार अवैध चल रहे हैं। इतना ही नहीं, इन डांस बारों में नशे के अवैध कारोबार से लेकर सेक्स रैकेट के अनैतिक धन्धे भी खूब फल-फूल रहे हैं। इतने पर भी न तो सरकारें इन डांस बारों पर शिकंजा कसती हैं और न ही इनमें चल रही अवैध गतिविधियों का अंत होता है।
उजड़ गये कोठे
चाँदपोल बाज़ार और रामगंज बाज़ार के कोठे अब उजड़ चुके हैं। अब यहाँ न सुर सधते हैं और न घुँघरू बँधते हैं। मुजरा कोठों की देहरी लाँघकर दबंगों की महिफलों में पहुँच गया है। गज़ल का सोज़, संगीत के साज़ और मखमली आवाज़ का प्रतीक मुजरा अब बीते ज़माने की बात हो चला है। लेकिन फन, हुस्न और हुनर का यह अनोखा मेल न जाने कहाँ बिखर गया? झाड़-फानूसों, कंदीलों और फूलों से सजे कोठे ही गुम हो गये, तो मुजरों की असली महक कैसे मिलेगी? वीरान कोठों और लुप्त होते मुजरे की जगह जयपुर में डांस क्लब चलाने वाली अनीसा फातिमा बहुत कुछ कह देेती हैं। वह कहती हैं- ‘लोग मुजरा देखना चाहते हैं, तो हम वो भी करते हैं। लेकिन अब लोगों की ज़्यादा ख्वाहिश-ओ-फरमाइश कूल्हे उचकाने और सीना उछालने वाले नाच-गाने देखने सुनने की होती है। यानी नाम मुजरे का, और नाच-गाना फिल्मी! फिर घुँघरू बाँधकर तबले की थाप पर थिरकने से क्या फायदा? फिर मुजरे की समझ राजा-रजवाड़ों में होती थी। आम आदमी तो फिल्मी नग़्में सुनना चाहता है।’ नग़्मा का कहना है- ‘तवायफें तराशी हुई औरतें होती थीं; जिन्हें रईस-नवाब अपने लिए तैयार करवाते थे। उनमें तहज़ीब होती थी। अब वो बात कहाँ?’ एक बुजुर्ग तवायफ तनूजा सीधा सवाल करती है- ‘सलवार दुपट्टा पहनकर मुजरा किया जा सकता है क्या? नहीं किया जा सकता। मुजरे के लिए चाहिए, साँचेे में ढला बदन और खास पिशवाज़।’ 65 वर्षीय बानो बेगम कहती है- ‘अब तो सब कुछ बदल चुका है। नरगिस और सायरा जैसी कुछ तवायफेंहैं, जिन्होंने आज भी परम्परागत मुजरे को बचाये रखा है। राजा-महाराजा इस मामले में बेहद सख्त हुआ करते थे। मजलिस में परम्परागत लिबास ही न हो, तो काहे का मुजरा?’ मुजरे की चमक लौटाने की कोशिश में जुटीं जोहराबाई साफ कहती है- ‘मुझे कोठा बन्द करना कुबूल है, लेकिन मुजरे की चमक मैली करना मंज़ूर नहीं। मुजरा तो कला है। हम इस परम्परा को बनाये रखना चाहते हैं। पैसे की खातिर कला के साथ कोई छेड़छाड़ क्यों?’
डांस गर्ल
तवायफों का नया चेहरा है- ‘डांस गर्ल’। आधुनिकता की ताल पर फिट बैठने के लिए जयपुर में कतार से खुल गये ‘नाच घर’ इसी की देन है। मुजरे के नाम पर नाक-भों सिकोडऩे वाली इन नाच बालाओं का कहना है कि लोग अब मुजरा नहीं, जिस्म देखना चाहते हैं। इसलिए हमने भी अपने आपको उनकी पसन्द के अनुरूप ढाल लिया है। नाच गर्ल मधुबाला कहती है- ‘शादी-ब्याह जैसे समारोहों में हमारी अच्छी-खासी माँग होती है। लोग इ•ज़त से हमें बुलाते हैं। हमारा नाच-गाना देखते हैं। हमें मनचाही उजरत (नज़राना) मिल जाती है और क्या चाहिए?’ इस कारोबार से जुड़े लोगों का कहना है कि असल में नाच घरों नेे जयपुर में मनोंरंजन की नयी दुनिया रच दी है। कम-से-कम तवायफों की इस नयी नस्ल को न तो अब जिस्म बेचने की मजबूरी है और न ही पिशवाज़ पहनकर मुजरा करने के लिए ग्राहकों का इंतज़ार करना पड़ता है। मुमताज मानती है- ‘हमें दुबई तक के पैगाम आते हैं। हम वहाँ प्रोग्राम के लिए जाती भी हैं। लेकिन इस सवाल पर मुमताज चुप्पी साधती नज़र आयीं कि क्या नाच घरों ने जयपुर से खाड़ी देशों तक देह-व्यापार का रैकेट बना दिया है?
एक तवायफ ने अपना नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर बताया कि नाच-गाने का धन्धा एक बदनाम पेशा है। इसलिए कोई भी, कुछ भी आरोप लगा देता है। लेकिन कुछ डांस ग्रुप अगर ऐसा करते हैं, तो इसके लिए सबको ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। उन्होंने कहा- ‘हसरतों के नाच में अपनी बर्बादी देखने वाले लोग हैं, तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो प्रतिष्ठित तरीके से डांस ग्रुपों का कारोबार कर रहे हैं।’