चिपको आंदोल : पिछली सदी के शुरुआती दशकों में तब के उत्तराखंड यानी ब्रिटिश कुमाऊं में जंगलात के अधिकारों पर सरकारी घुसपैठ के खिलाफ जंगल सत्याग्रह हुआ। पचास साल बाद अपनी सरकार की जंगलात नीति को चुनौती देने वाला चिपको आंदोलन जन्मा। जंगल सत्याग्रह के सौ साल पूरे हो चुके हैं। चिपको की अर्ध शताब्दी शुरू हो गई, जो 2030 तक चलती रहेगी। चिपको के तमाम प्रतिरोध एक दशक से भी अधिक समय में फैले हैं।
एक नया नारा जन्मा-‘वन जागे-वनवासी जागे।’ यह आधी सदी से अन्य नारों के साथ आज भी गूंजता है। तब लकड़ी स्टार पेपर मिल्स और लीसा इंडियन टरपैनटाइन ऐंड रोजिन कंपनी, बरेली (आईटीआर) आदि को जाता था। किसी सहकारी या ग्रामीण उद्योग को कच्चा माल देने की शुरुआत नहीं हो सकी। संस्थाओं, जनप्रतिनिधियों तथा उद्यमियों द्वारा हक-हकूक तथा कच्चे माल हेतु प्रतिवेदन दिए जाते रहे। 1962, 65 और 71 के युद्ध प्रस्तावों को टालने का बहाना बने। इन युद्धों में उत्तराखंड से भी सैकड़ों नौजवान शहीद हुए। 1965 से ही 1930 के तिलाड़ी कांड की याद होने लगी।
उत्तराखंड सर्वोदय मंडल ने दिसंबर, 1972 में पुरौला, उत्तरकाशी तथा गोपेश्वर में प्रदर्शन आयोजित किए तथा वनाधिकार के मुद्दे को फिर उभारा। 15 दिसंबर, 1972 का गोपेश्वर प्रदर्शन प्रभावशाली था। मुख्य नारा था-‘वनवासियों का अधिकार, वन संपदा से रोजगार।’ शैलानी के गीत का जन्म हुआ। उसमें ‘चिपको’ शब्द आना था।
1973 में इन मांगों की अवहेलना करते हुए खेती के उपकरण बनाने की अंगू की लकड़ी व्यापारिक कंपनियों को दिए जाने की घोषणा हुई। ग्रामीणों और उनकी संस्थाओं से कहा गया कि चीड़ की लकड़ी से ये उपकरण बनाओ, जो संभव नहीं था। चंडी प्रसाद भट्ट स्थानीय विधायक के साथ अरण्यपाल से मिले, समझाया। पर असर नहीं।
27 मार्च, 1973 को अंगू के पेड़ काट ले जाने की तैयारी में साइमंड कंपनी वाले गोपेश्वर आए। यह सुनते ही चंडी प्रसाद ने स्वाभाविक उत्तेजना में कहा कि ‘उनसे कह दो, हम पेड़ नहीं कटने देंगे। हम उन पर चिपक जाएंगे।’ इस तरह चिपको शब्द जन्मा। एक अप्रैल, 1973 को गोपेश्वर में सर्वदलीय बैठक हुई। संस्था को दिए जाने वाले पेड़ कंपनी को मिले हैं, यह सबको पता चला।
कंपनी को मंडल में पेड़ दिए गए। समाज प्रतिकार को तैयार था। 24 अप्रैल को मंडल में आलमसिंह बिष्ट की अध्यक्षता में सभा हुई। दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल सदस्यों ने तैयारी की थी। 23 को ही हाथ से लिखे पोस्टर गोपेश्वर-मंडल में लगे। चिपको आंदोलन का सार्वजनिक एलान हुआ। कंपनी के कारिंदे वापस गए। यह बिना चिपके ही चिपको की पहली जीत थी। अब वन विभाग ने कंपनी को फाटा के मैखंडा जंगल में पेड़ दिए। केदार सिंह रावत जैसा नौजवान आंदोलन का सहयोगी बना। 27 जून से 31 दिसंबर, 1973 तक अनेक प्रदर्शन फाटा में हुए। संघर्ष समिति बनी। कंपनी के कुल्हाड़े और आरे जंगल नहीं जा सके। अगस्त में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के गढ़वाल आगमन पर उनसे भी फाटा में कटान रोकने का निवेदन किया। 29 दिसंबर को गोपेश्वर से श्यामा देवी अन्य महिलाओं के साथ फाटा पहुंची। चिपको आंदोलन का पहला महिला जुलूस फाटा में निकला। यह अगले साल रेणी में होने वाले प्रतिरोध का पूर्व संकेत था।
ग्रामीणों और कार्यकताओं ने जंगल नहीं कटने दिया। इस तरह मंडल के बाद चिपको का दूसरा प्रतिरोध भी सफल रहा। चिपको के इन पहले प्रतिरोधों में सैकड़ों ग्रामीणों के साथ चंडी प्रसाद भट्ट, घनश्याम शैलानी, आनंद सिंह बिष्ट, शिशुपाल कुंवर, मुरारीलाल, आलम सिंह बिष्ट, केदार सिंह रावत, श्यामा देवी, प्रताप सिंह पुष्पाण आदि का योगदान रहा। अभी जंगल की लड़ाई को उत्तरकाशी से नैनीताल और आपातकाल के बाद अनेक और जगहों तक जाना था।
जब यह लड़ाई चल रही थी, तब उसे आगामी समय में आगे ले जाने वाले अन्य आंदोलनों में जुटे थे। एक ओर विश्वविद्यालय स्थापना का आंदोलन, दूसरी ओर उत्तरकाशी तिलोथ के सेरे को बचाने में लोग जुटे थे। तीसरी ओर चमोली जिले में 1962 के बाद सड़क बनाने में ले ली गई जमीन के मुआवजे प्राप्ति का संघर्ष चला हुआ था। चिपको ने एक विचार और कार्यवाही के रूप में प्रभावी इतिहास बनाया। उसका प्रभाव स्थानीय से विश्व परिदृश्य तक गया।