आर्टिकल : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पुण्यतिथि पर, उन्हे याद करते हुए.

आर्टिकल : बीसवीं सदी में फ़ैज़ जैसा कवि भारतीय उपमहाद्वीप में नहीं हुआ!गुलामी से मुक्ति का महाकवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़. आज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पुण्यतिथि है। उनका देहांत 20 नवंबर 1984 को लाहौर (पाकिस्तान ) में हुआ था ! फ़ैज उन तमाम लेखकों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं जो समाज को बदलना चाहते हैं, अमेरिकी साम्राज्यवाद की सांस्कृतिक-आर्थिक गुलामी और विश्व में वर्चस्व स्थापित करने की मुहिम का विरोध करना चाहते हैं, सत्ता और राजनीतिक गुलामी से मुक्त होकर जनता की मुक्ति के प्रयासों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना चाहते हैं। फ़ैज़ इन दिनों पश्चिम बंगाल के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।खासकर पश्चिम बंगाल में इन दिनों जिस तरह मार्क्सवाद को कलंकित करने का बांग्ला मीडिया और नव्य उदारपंथी बंगाली बुद्धिजीवियों ने उन्मादी प्रचार आरंभ किया है वह हम सबके लिए चिन्ता की बात है। मार्क्सवाद के बारे में फैलाए जा रहे घृणित मिथों को आज तोड़ने की जरूरत है। इन मिथों के निर्माण में मार्क्सवादी कट्टरपंथी से लेकर नव्य उदार बांग्ला बुद्धिजीवियों की बड़ी भूमिका रही है!
मेरा मानना है कि मार्क्सवाद कोई मिथक नहीं हैं। रूढ़िवादिता भी नहीं है। किताबी तत्वशास्त्र नहीं है। यह जीवन और समाज को बदलने का विश्व दृष्टिकोण है। यह कोई पार्टीलाइन या पार्टी आदेश नहीं है। यह कम्युनिस्ट पार्टी की जी हजूरी भी नहीं है। यह किसी ममता बनर्जी या बुद्धदेव भट्टाचार्य का चारणशास्त्र नहीं है। मार्क्सवाद सामाजिक परिवर्तन का वैज्ञानिक नजरिया है।
आज भारत में अनेक प्रगतिशील कवियों और लेखकों ने भारत में सत्ता के सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया है। मजदूरों के पक्ष में बोलना बरसों से बंद कर दिया है। देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों की मलाई खाने और प्रतिष्ठानी कर्मकांड का अपने को हिस्सा बना लिया है। खासकर उर्दू की प्रगतिशील कविता का तो और भी बुरा हाल है। उसमें मजदूरों-किसानें की हिमायत करके रहना तो एकदम असंभव हो गया है! उर्दू के अधिकांश कवियों-साहित्यकारों ने मजलूमों के हकों के लिए जंग की बजाय सिनेमा उद्योग की जंग में सारी शक्ति लगानी बेहतर समझी है या आधुनिकतावादी चोगा पहन लिया है या फिर अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया है और खुल्लम-खुल्ला अमेरिकी नजरिए से उर्दू और मुसलमानों के मसलों को देख रहे हैं।
हिन्दी के जो प्रगतिशील आलोचक-लेखक-कवि फ़ैज़ पर सबसे ज्यादा समारोहों में नजर आ रहे हैं उनके हाथों में प्रतिवाद की कलम नहीं है। वे आजाद भारत में सत्ता के साथी रहे हैं, खासकर आपातकाल में उनके हाथ जनतंत्र के खून से सने हैं। ऐसे लोग भी हैं जो अमेरिका और उसके सांस्कृतिक बदनाम संस्थानों को भारत में कला-संस्कृति के क्षेत्र में लेकर आए और उनके लिए कई दशकों से काम करते रहे हैं, ये लोग भी फ़ैज़ के जलसों में नज़र आएंगे। हमें थोड़ा ईमानदारी के साथ एक बार हिन्दी-उर्दू के साहित्यकारों और लेखकों के साहित्यिक कर्मकांड के बाहर जाकर फ़ैज़ की जिन्दगी के तजुर्बों की रोशनी में, उन मानकों की रोशनी में हिन्दी-उर्दू की प्रगतिशील साहित्य परंपरा और लेखकीय कर्म पर आलोचनात्मक नजरिए से विचार करना चाहिए कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ जिसके कारण फ़ैज़ ने सारी जिन्दगी सत्ता के जुल्मो-सितम के सामने समर्पण नहीं किया लेकिन उर्दू-हिन्दी के अधिकांश कवियों और लेखकों ने समर्पण कर दिया।
वह कौन सी चीज है जो फ़ैज़ को महान बनाती है ?
क्या कविता कवि को महान बनाती है ? क्या पुरस्कार महान बनाते हैं ? क्या सरकारी ओहदे महान बनाते हैं ? क्या कवि को राजनेताओं और पेजथ्री संस्कृति का संसर्ग महान बनाता है ?
क्या लेखक को मीडिया महान बनाता है ? इनमें से कोई भी चीज कवि या लेखक को महान नहीं बनाती। कवि के व्यापक सामाजिक सरोकार, उन्हें पाने के लिए उसकी कुर्बानियां और सही नजरिया उसे महान बनाता है।
कोई कवि महान है या साधारण है यह इस बात से तय होगा कि उसकी कविता और जीवन का लक्ष्य क्या है ? उस लक्ष्य को पाने के लिए वह कितनी कुर्बानी देने को तैयार है। कवि तो बहुत हुए हैं। फ़ैज़ से भी बड़े कवि हुए हैं।
ऐसे भी कवि हुए हैं जो उनसे बेहतर कविता लिखते थे। ऐसे भी कवि हुए हैं जिनके पास सम्मान-प्रतिष्ठा आदि किसी चीज की कमी नहीं थी। लेकिन यह सच है कि बीसवीं सदी में फ़ैज़ जैसा कवि भारतीय उपमहाद्वीप में नहीं हुआ। मजदूरों-किसानों के हकों के लिए जमीनी जंग लड़ने वाला ऐसा महान कवि नहीं हुआ।
फ़ैज़ की कविता में जिन्दगी का यथार्थ ही व्यक्त नहीं हुआ है बल्कि उन्होंने अपने कर्म और कुर्बानी से पहले अविभाजित भारत और बाद में पाकिस्तान में एक आदर्श मिसाल कायम की है।
सर्वहारा के लिए सोचना, उसके लिए जीना और उसके लिए किसी भी कुर्बानी के लिए तैयार रहना यही सबसे बड़ी विशेषता थी जिसके कारण फ़ैज़ सिर्फ फ़ैज़ थे। मजदूरों की जीवन दशा पर उनसे बेहतर पंक्तियां और कोई लिख ही नहीं पाया। उन्होंने लिखा-
‘‘जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछा
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है.’’
मजदूरों के अधिकारों का हनन, उनका उत्पीड़न और उन पर बढ़ रहे जुल्म ही थे जिनके कारण उनकी कविता महान कविता में तब्दील हो गयी। मजदूर की पीड़ा उन्हें बार-बार आंदोलित करती थी, बेचैन करती। मजदूरों के हकों का इतना बड़ा कवि भारतीय उपमहाद्वीप में दूसरा नहीं हुआ।
मात्र उर्दू कवि नहीं थे फ़ैज़ बल्कि मजदूर वर्ग के महाकवि थे। फ़ैज़ की कविता में जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता, राष्ट्र, राष्ट्रवाद आदि का अतिक्रमण दिखाई देता है। उन्होंने सचेत रूप में समूची मानवता और मानव जाति के सबसे ज्यादा वंचित वर्गों पर हो रहे जुल्मों के प्रतिवाद में अपना सारा जीवन लगा दिया। वे मात्र उर्दू कवि नहीं थे। बल्कि मजदूर वर्ग के महाकवि थे। वे सारी जिंदगी सर्वहारावर्ग के बने रहे। वे अविभाजित भारत और बाद में पाकिस्तान सर्वहारा की जंग के महायोद्धा बने रहे।
फ़ैज़ उन बड़े कवियों में हैं जिनकी चेतना ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद का सही अर्थों में अतिक्रमण किया था और समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के मजदूरों-किसानों और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कविता लिखने से लेकर जमीनी स्तर तक की वास्तव लड़ाईयों का नेतृत्व किया था।
महाकवि फ़ैज़ का सियालकोट (पंजाब, पाकिस्तान) में 13 फरवरी 1911 को जन्म हुआ था।उर्दू कविता को नई बुलंदियों तक उन्होंने पहुँचाया ।फ़ैज़ एक ही साथ इस्लाम और मार्क्सवाद के धुरंधर विद्वान थे। उनके घर वालों ने बचपन में उनको कुरान की शिक्षा दी।
उर्दू-फारसी-अरबी की प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने अंग्रेजी और अरबी में एम.ए. किया था लेकिन वे कविताएं उर्दू में करते थे। फ़ैज़ ने 1942 से 1947 तक सेना में काम किया। बाद में लियाकत अली खाँ की सरकार के तख्ता पलट करने की साजिश की जुर्म में 1951-1955 तक जेल की यातना भी सहनी पड़ी थी।
फ़ैज़ के व्यक्तित्व में जो बागीपन थे उसका आधार है दुनिया की गुलामी, गरीबी, लोकतंत्र का अभाव और साम्राज्यवाद का वर्चस्वशाली चरित्र। आज हमें 1983 के एफ्रो-अशियाई लेखक संघ की रजत जयंती के मौके पर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ द्वारा दिए गए भाषण की याद आ रही है, यह भाषण बहुत ही महत्वपूर्ण है।फ़ैज़ ने कहा था इस युग की दो प्रधान समस्याएं हैं उपनिवेशवाद और नस्लवाद।
फ़ैज़ ने कहा था “हमारा इस बात में दृढ़ विश्वास है कि साहित्य बहुत गहराई से मानवीय नियति के साथ जुड़ा है, कि स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के बिना साहित्य का विकास संभव नहीं है, कि उपनिवेशवाद और नस्लवाद का समूल नाश साहित्य को सृजनात्मकता के संपूर्ण विकास के लिए बेहद ज़रूरी है।”
फ़ैज़ ने इन समस्याओं पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रोशनी डालते हुए लिखा है: ”तमाम युद्धों के अंत की तरह, लड़े गए पहले महायुद्ध के बाद सामाजिक, नैतिक और साहित्यिक बूर्जुआ मान्यताओं और वर्जनाओं के टूटने और समृद्धि के एक संक्षिप्त दौर में विजेताओं के दिमाग़ में अहं का उन्माद उफनने लगा था। ख़ुदा आसमान पर था और धरती पर सब कुछ मज़े में चल रहा था।”
” नतीजतन ज्यादातर पश्चिमी और कुछ उपनिवेशों के साहित्य ने उसे आदर्श के रूप में अपना लिया। बड़े पैमाने पर शुद्ध रूपवाद के आनंद का सम्मोहन, अहं केन्द्रित चेतना की रहस्यात्मकता से लगाव, रूमानी मिथकों और कल्पित आख्यानों के बहकावों के साथ ‘कला के लिए कला’ के उद्धबोधक सौंदर्यशास्त्रियों द्वारा अभिकल्पित गजदंती मीनारों का निर्माण होने लगा।”
आज भी अनेक बुद्धिजीवी हैं जो परमाणु हथियारों की दौड़ के घातक परिणामों से अनभिज्ञ हैं। इस दौड़ ने सोवियत संघ के समाजवादी ढांचे को तबाह किया और शांति के बारे में जो खयाल थे उन्हें नुकसान पहुँचाया। फ़ैज़ इस फिनोमिना की परिणतियों पर नजर टिकाए हुए थे!
द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दौर के बारे में फ़ैज़ ने लिखा,
“युद्ध के बाद का हमारा समय, विराट अंतर्विरोधों से ग्रस्त हमारा युग, विजयोल्लास और त्रासदियों से भरा युग, उत्सवों से भरा और हृदयविदारक युग, बड़े सपनों और उनसे बड़ी कुण्ठाओं का ज़माना। तीसरी दुनिया की जनता के लिए, एशियाई, अफ्रीकी और लातीनी अमेरिकी लोगों के लिए, कम से कम इनकी एक बड़ी आबादी के लिए, किसी को तत्काल डिकेंस के शब्द याद आ जायेंगे-‘ वह बेहतरीन वक़्त था, वह बदतरीन वक़्त था।’
अपने दो-दो विश्वयुद्धों से थके हुए साम्राज्यवाद का कमज़ोर पड़ते जाना, सोवियत सीमाओं का विस्तार लेता और एकजुट होता समाजवादी ख़ेमा, संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म, राष्ट्रीय स्वतंत्रता और सामाजिक मुक्ति के आंदोलनों का उदय और उनकी सफलताएँ, सभी कुछ एक साहसी नयी दुनिया का वादा कर रहे थे जहां स्वतंत्रता, शांति और न्याय उपलब्ध हो सकता था। पर हमारी बदकिस्मती से ऐसा नहीं था।”
परमाणु हथियारों की दौड़ पर फ़ैज़ ने लिखा है:
“आणविक हथियारों के जिन्न को बंद बोतल से आज़ाद करते हुए अमेरिका ने समाजवादी खेमे को भी ऐसा ही करने का आमंत्रण दे दिया। उस दिन से आज तक हमारी दुनिया की समूची सतह पर विनाश के डरावने साये की एक मोमी परत चढ़ी है और आज जितने खतरनाक तरीके से हमारे सामने झूल रही हैं .उतनी पहले कभी न थी।”
राजनीति में इस जमाने को शीतयुद्ध के नाम से जानते हैं। इस जमाने में मुक्त विश्व का नारा दिया गया। मुक्त विश्व के साथ मुक्त बाजार और मुक्त सूचना प्रवाह को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। इसी के अगले चरण के रूप में नव्य उदारतावाद आया। मुक्त विश्व की धारणाओं का मीडिया से जमकर प्रचार किया गया। इसके पक्षधर हमारे बीच में अभी भी हैं और अहर्निश मुक्त विश्व और मुक्त बाजार की हिमायत करते रहते हैं।
इसके बारे में फ़ैज़ ने लिखा- “स्वतंत्र विश्व के नाम पर संभवतः हमारे इतिहास के घोर अयथार्थ ढ़ोल नगाड़ों के शोर के साथ अमेरिकन शासन तंत्र ने यहां वहां ढ़ेर सारे निरंकुश राजाओं-सुल्तानों, ख़ून के प्यासे अधिनायक-तानाशाहों, बेदिमाग़ दुस्साहसी सेनापतियों और हवा-हवाई किस्म के राजनीतिज्ञों, जिस पर भी हाथ रख सकें, को सत्ता के सिंहासन पर बैठाने की कोशिशें की हैं और बैठाया भी है। “
“यह कार्रवाई वियतनाम से बड़ी बदनामी के बाद हुई अमेरिकन विदाई के साथ कुछ वक़्त के लिए रुक सी गयी थी। फिर रोनाल्ड रीगन के ज़माने से हम अमेरिकनों और उनके नस्लवादी साथियों को यहां-वहां भौंकते शिकारी कुत्तों की तरह इन तीन महाद्वीपों में जैसे बिखरे बारूद के ढ़ेरों के आसपास देख रहे हैं।”
अमेरिका द्वारा संचालित शीतयुद्ध और तीसरी दुनिया में स्वतंत्र सत्ताओं के उदय के साथ पैदा हुई परिस्थितियों ने समाज, साहित्य, संस्कृति और संस्कृतिकर्मियों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। इसके कारणों पर प्रकाश ड़ालते हुए फ़ैज़ ने लिखा है- “नये शोषक वर्ग और निरंकुश तानाशाही के उदय और वैयक्तिक और सामाजिक मुक्ति के सपनों के ढ़ह जाने से युवापीढ़ी मोहभंग, सनकीपन और अविश्वास की विषाक्त चपेट में आ गयी है।
नतीजतन बहुत से युवा लेखक पश्चिमी विचारकों द्वारा प्रतिपादित किए जा रहे जीवित यथार्थ से रिश्ता तोड़ने, उसके मानवीय और शैक्षणिक पक्ष को अस्वीकार करने और लेखक को तमाम सामाजिक ज़िम्मेदारियों से मुक़्त होने जैसे प्रतिक्रियावादी विचारों और सिद्धान्तों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं।
अब परिस्थिति बदलने की अथक चेष्टा हो रही है और इन वैचारिक मठों और गढ़ों से रूपवाद, संरचनावाद, अभिव्यक्तिवाद और अब ‘लेखक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ जैसे ऊपर से अत्यंत आकर्षक लगने वाले नारे की लगातार वकालत की जा रही है!
मैं उनको अपनी श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं !
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