देवदासी। हम सभी ने ये नाम तो सुना ही होगा। किसी ने कहानी में तो किसी ने फिल्म में। देवदासी यानी देवों की वे कथित दासियां जिन्हें धर्म के नाम पर सेक्स स्लेव बनाकर रखते हैं। उम्र ढलते ही भीख मांगने के लिए छोड़ दिया जाता है। चौंकिए मत। ये प्रथा राजा-महाराजाओं के समय की बात नहीं, आज का भी सच है।
देवदासियों का गढ़ यानी बेंगलुरु से तकरीबन 400 किलोमीटर दूर स्थित उत्तरी कर्नाटक का जिला कोप्पल। पूर्णिमा की रात और चांद की रोशनी से नहाया हुलगेम्मा देवी का मंदिर भक्तों से खचाखच भरा है। हुदो, हुदो…श्लोक चारों ओर हवा में तैर रहे हैं। इस श्लोक का उच्चारण करने वाली हर तीसरी महिला के गले में सफेद और लाल मोतियों की माला यानी मणिमाला है। हाथों में हरे रंग की चूड़ियां और चांदी के पतले कंगन हैं।
वे दीये जला रही हैं। उनके हाथ में बांस की एक टोकरी है। जिसे यहां के लोग पडलगी कहते हैं। इसमें हल्दी-कुमकुम, अनाज, सब्जी, धूप, अगरबत्ती, सुपारी, पान पत्ता, केला और दक्षिणा रखी है। वे देवी मां को पडलगी में रखे सामान अर्पित कर रही हैं। मंदिर में मौजूद बाकी लोगों से इनकी पहचान अलग है। वहां मौजूद एक शख्स से पूछने पर पता चलता है कि ये महिलाएं देवदासी हैं।
इन्हें पूर्णिमा की रात का खास इंतजार होता है। अपनी देवी को खुश करने के लिए वे इस मंदिर में आती हैं।
मंदिर में इधर-उधर नजर दौड़ाई। 22 साल की बसम्मा मंदिर में अराधना कर रही हैं। पूछने पर कहती हैं- तीन साल पहले देवदासी बनी हूं। माता-पिता ने बुढ़ापे के सहारे की वजह से देवदासी बना दिया। तब से यहीं भीख मांगकर गुजर-बसर कर रही हूं।
यहां से तकरीबन 15 किलोमीटर चलने पर मिलता है विजयनगर जिले का उक्करकेरी गांव। इसे देवदासियों का गढ़ कहते हैं। संकरी गलियों से होते हुए मैं देवदासी लक्ष्मी के घर पहुंची। पांव पसारने की जगह जितनी झोपड़ी, जहां वह अपने पांच बच्चों के साथ रहती हैं। नहाना, खाना और सोना सब कुछ उसी झोपड़ी में। जमीन में छोटा सा गड्ढा खोदकर चटनी पीसने का जुगाड़ कर रखा है।
लक्ष्मी की बेटी जया कहती हैं, ‘एक बार जोर से बारिश आ जाए, तो झोपड़ी में पानी घुस आता है। क्या खाएं, कहां रहें समझ नहीं आता। आप ही बताइए हम मर जाएं क्या…
आंखों में आंसू भरे जया कहती हैं, ’हमारा तो ये हाल है कि अपने पिता का नाम भी नहीं पता है। जिन्हें अगर पता भी है, वो डर के मारे नाम नहीं लेगा, क्योंकि वो पिता या तो कोई पंडित है या गांव का मुखिया या फिर कोई दबंग। जिसने किसी सामान की तरह मां को भोगा और जब मन भर गया तो छोड़ दिया।’
यहां से आगे बढ़ी, तो हल्के हरे रंग की साड़ी में घर के बाहर बैठी मिलीं उल्लीम्मा। उम्र तकरीबन 50 साल। कहती हैं- हम 6 बहनें थीं। दो को माता-पिता ने देवदासी बना दिया और चार की शादी कर दी थी। मेरा पुरोहित तीन साल तक साथ रहा। उससे मुझे दो बच्चे हुए। उसके बाद उसने मुझे छोड़ दिया।
मैंने गुजारा कैसे किया है, मैं ही जानती हूं। जंगल से 50-50 किलो लकड़ी लेकर आती थी। उनके बंडल बनाती और शहर जाकर बेचती। एक दिन के ज्यादा से ज्यादा दस रुपए ही मिलते थे।
कई बार तो बच्चे भूखे ही रह जाते थे। भीख मांगकर गुजारा करना पड़ा। देवदासी होने की वजह से जो कष्ट मुझे मिला वो किसी औरत को न मिले। इस धरती का सबसे बड़ा श्राप देवदासी होना है।
उल्लीम्मा कहती हैं- कहने को तो देवदासी घर की मुखिया होती हैं, वह घर का लड़का होती है, लेकिन हकीकत ये है कि हम देवदासियां शूद्र हैं। ऊंची जाति के मर्द हमारे साथ जब तक चाहें संबंध बनाते हैं। एक बार हम प्रेग्नेंट हुए कि दोबारा वे अपनी शक्ल नहीं दिखाते हैं। यहां तक कि अपने बच्चों को देखने भी नहीं आते।
जब शादीशुदा बहनें घर आती हैं तो उनकी बहुत खातिरदारी होती है। उन्हें चूड़ी, पायल और कपड़े दिए जाते हैं। हमें तो बस इसी चारदीवारी में रहना होता है। न कहीं आना न जाना। कई बार मैं दूसरों को जोड़ियों में देखकर बहुत दुखी हो जाती हूं।
इसी गांव की 65 साल की पार्वती कहती हैं कि दस साल की उम्र में ही मुझे देवदासी बना दिया गया। मेरे पुरोहित से मुझे दो बेटियां और एक बेटा पैदा हुआ। बड़ा होने के बाद बेटा मुझे छोड़कर चला गया। दोनों बेटियों की किसी तरह से मैंने शादी की। अब इस घर में अकेली रहती हूं।
पुरोहित से कभी किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं मिली। वह मेरी ही कमाई से ऐश करके चला जाता था। मैं अपने गुजारे के लिए या तो सब्जी बेचा करती थी या खेत में मजदूरी करती थी। बच्चों की पैदाइश से लेकर उनकी शादियों तक का खर्च मैंने उठाया है।
जब पुरोहित की मौत हुई, तो मैं उनके घर गई थी। उसके परिवार ने मुझे घर में नहीं घुसने दिया।
कर्नाटक राज्य देवदासी महिडेयारा विमोचना संघ की स्टेट वाइस प्रेसिडेंट के. नागरतना बताती हैं कि दक्षिण भारत में सैकड़ों स्थानीय देवियां हैं, जिनके नाम पर लड़कियों को देवदासी बनाया जाता है। उनमें तीन देवियां मुख्य हैं। हुलगीम्मा, येलम्मा और होसुरम्मा। ये तीनों बहनें हैं।
देवदासियों के लिए कोई तय उम्र नहीं है। पांच साल की लड़की भी देवदासी बन सकती है और दस साल की भी। देवदासी बनने वाली लड़कियां दलित परिवार की ही होती हैं।
इन्हें सदा सुहागिन समझा जाता है। पार्वती की बहनें और शिव की दूसरी पत्नी भी कहा जाता है। शादी-ब्याह में सबसे पहले पांच देवदासियों को खाना खिलाया जाता है। आज भी उचिंगिम्मा के मंदिर में हर साल त्योहार होता है, जहां देवदासियों के बदन पर सिर्फ नीम के पत्ते बांधे जाते हैं और इन्हें देवी के रथ के साथ चलना होता है।
पहले मन्नत पूरी होने पर बनाते थे देवदासी, बाद में दबंग दबाव डालकर बनवाने लगे
दलित हकुगढ़ समिति शोषण मुक्ति संघ के ताल्लुका प्रधान सत्यमूर्ति बताते हैं ये परंपरा सालों से चली आ रही है। यहां के मियाजखेरी गांव में तो एक वक्त ऐसा था कि जो भी लड़की पैदा होती, उसे देवदासी बनना ही होता था।
गांव के मुखिया, प्रधान या किसी दबंग का किसी लड़की पर दिल आ गया, तो वह अपने चेलों के जरिए उसके परिवार पर देवदासी बनाने के लिए दबाव डलवाते हैं। वे उस परिवार को डराते हैं कि तुम्हारे घर के संकट टल जाएंगे, अपनी इस बेटी को देवदासी बना दो।
आखिर दक्षिण भारत में ही क्यों है देवदासी परंपरा
डॉ. अमित वर्मा कहते हैं कि देवदासी परंपरा उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत के मंदिरों में मजबूती के साथ डेवलप हुई। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह रही उत्तर भारत में लगातार विदेशी आक्रमणकारियों का आते रहना। उन्होंने मंदिरों को काफी नुकसान पहुंचाया। ऐसे में यहां मंदिर संस्कृति वैसी विकसित नहीं हो सकी जैसे दक्षिण भारत में हुई।
दक्षिण भारत के मंदिर पूजा-पाठ के साथ संस्कृति, कला, नृत्य, अर्थ और न्याय के भी केंद्र हुआ करते थे। भरतनाट्यम, कथक जैसे नृत्य मंदिरों से ही निकले। इन्हीं मंदिरों से देवदासी परंपरा भी निकली।
शुरुआत में देवदासियों की स्थिति बहुत मजबूत हुआ करती थी। समाज में उनका सम्मान था। तब देवदासियां दो प्रकार की थीं। एक जो नृत्य करती थीं और दूसरी जो मंदिर की देखभाल करती थीं।
अमित वर्मा कहते हैं कि पहले लोग ज्यादा बच्चे पैदा करते थे, लेकिन बीमारी और सही इलाज नहीं मिलने की वजह से बहुत कम बच्चे ही जीवित बचते थे।
ऐसे में उनके माता-पिता मंदिरों में जाकर मन्नतें मांगने लगे कि मेरी संतान जीवित बची तो एक बच्ची को देवदासी बनाएंगे। इस तरह ये परंपरा आगे बढ़ती गई। लोग अपनी मनोकामना पूरी होने पर परिवार की एक लड़की को देवदासी बनाने लगे।
दक्षिण भारत के मंदिरों में इसके लिए देवदासी समर्पण का भव्य उत्सव होता था। कुंवारी कन्या का विवाह मंदिर के देवता से कराया जाता था। इसके बाद उसे मंदिर की सेवा के लिए रख लिया जाता था। बदले में उसे थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद मिलती थी।
हर देवदासी के लिए मंदिर में पुरोहित होते थे। देवता से मिलाने के नाम पर वे देवदासियों के साथ संबंध बनाते थे। धीरे-धीरे उनकी आर्थिक स्थिति खराब होती चली गई और वे अपना गुजारा चलाने के लिए वेश्यावृति करने पर मजबूर हो गईं। दंबग और रसूख वाले लोग जबरन अपनी पसंद की लड़कियों को देवदासी बनाने लगे।
देवदासियों के अलग-अलग नाम, कहीं महारी तो कहीं राजादासी
दक्षिण भारत के अलग-अलग भागों में देवदासियों को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। ओडिशा में इन्हें महारी यानी महान नारी कहते हैं, जो अपनी वासनाओं पर नियंत्रण रख सकती हैं।
कर्नाटक में इन्हें राजादासी, जोगथी और देवदासी कहा जाता है। महाराष्ट्र में मुरली, भाविन, तमिलनाडु में चेन्नाविडू, कन्निगेयर, निथियाकल्याणी, रूद्रा दासी, मणिकट्टर, आंध्र प्रदेश में भोगम, बासवी, सनि, देवाली, कलावंथाला और केरल में चक्यार, कुडिकय्यर कहा जाता है।
सरकार ने रोक लगा रखी है, लेकिन कर्नाटक में ही इनकी संख्या 70 हजार से ज्यादा
- कर्नाटक सरकार ने 1982 में और आंध्र प्रदेश सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में 4,50,000 देवदासियां हैं।
- जस्टिस रघुनाथ राव की अध्यक्षता में बने एक कमीशन के आंकड़े के मुताबिक सिर्फ तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में 80,000 देवदासिया हैं।
- कर्नाटक में सरकारी सर्वे के मुताबिक राज्य में कुल 46,000 देवदासियां हैं। सरकार ने केवल 45 साल से ऊपर की देवदासियों की ही गिनती की है।
- कर्नाटक राज्य देवदासी महिडेयारा विमोचना संघ के मुताबिक इनकी गिनती 70,000 है।
- सरकार से 1500 रुपए मिलते हैं और राशन में सिर्फ चावल। खाने का बाकी सामान खुद अपने पैसे से इन्हें लाना होता है।
जब सरकार ने इस पर रोक लगा रखी है, फिर ये प्रथा क्यों फल-फूल रही है… इस पर वे कहते हैं- इसका जारी रहना वैसा ही है जैसे दहेज का कानून बनने के बाद भी लोग दहेज लेते हैं। बलात्कार के खिलाफ कानून है, लेकिन आए दिन बलात्कार और छेड़खानी की घटनाएं होती हैं। कानून बनने के बाद भी बाल विवाह भी नहीं रुक रहा। यही हाल देवदासी प्रथा का भी है।इसकी जड़ें काफी गहरी हैं।