जलियांवाला बाग़ : सरकारी बस्तों में बंद दस्तावेजों ने खोले कई राज

जलियांवाला बाग़ : ​विश्व इतिहास की पहली साम्राज्यवादी शक्ति अंग्रेज़ नहीं थे। इतिहास साम्राज्यों की मानवता विरोधी दास्तानों से भरा पड़ा है। हम सब पुर्तगाली, रोमन, फ़्रांसीसी, उस्मानियाई, जर्मन आदि साम्राज्यों की रक्त रंजित दास्तानों से बख़ूबी परिचित हैं लेकिन यह भी सत्य है कि अंग्रेज़ साम्राज्य एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह साम्राज्य ज़्यादा व्यापक स्थायी और निरंतरता लिये था। अंग्रेज़ी साम्राज्य के ज़्यादा टिकाऊ होने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने साम्राज्य चलाने के काम को एक संस्थागत रूप दिया था। उन्होंने इस काम के लिए दफ्तरों का जाल-सा बिछा दिया था। साम्राज्य द्वारा की जानेवाली हर गतिविधि की सूचना हासिल की जाती थी और उसे संग्रहित  किया जाता था।

अंग्रेज़ साम्राज्य पहला साम्राज्य था, जिसने राज-काज से संबंधित तमाम दस्तावेज़ों और काग़ज़ात को अभिलेखागारों में सुरक्षित रखना शुरू किया। ये सब करने के पीछे उनका पुरानी चीज़ों के प्रति मोह नहीं था, बल्कि वे इतिहास के इन अनुभवों के माध्यम से वर्तमान को समझना और भविष्य को संचालित करना चाहते थे।

​भारत में अंग्रेजों ने 1891 में केंद्रीय अभिलेखागार की स्थापना कलकत्ता में की। बाद में इसे दिल्ली लाया गया। इसमें शासन के तमाम सरकारी दस्तावेज़ों का तो संग्रह था ही, इसके अलावा इसमें ख़ुफ़िया रिपोर्टों, सरकार विरोधी गतिविधियों, दलालों का ब्यौरा और प्रतिबंधित साहित्य का भी विशाल भंडार है। अंग्रेज़ जब भारत छोड़कर गए तो इसको भी भारत सरकार के हवाले कर गए।

राष्ट्रीय अभिलेखागार में दस्तावेज

ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का यह ख़ज़ाना, जो आज़ादी के बाद राष्ट्रीय अभिलेखागार कहलाया, ऊपरी तौर पर तो गुज़रे जमाने से संबंधित बेज़ुबान दस्तावेज़ों का रिकॉर्ड ही लगता है। लेकिन जब 1994 में  जलियांवाला बाग़ अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को अंग्रेज शासकों द्वारा अंजाम दिए गए क़त्लेआम की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर इस विभाग ने मूल दस्तावेज़ों, व्यक्तिगत काग़ज़-पत्रों, प्रतिबंधित साहित्य और चौंका देने वाले चित्रों की प्रदर्शनी लगाई तो एक तरफ़ गोरे शासकों के बेमिसाल बर्बर दमन और ख़ूंरेज़ी की दास्तानें जानकर दिल दहल उठा तो दूसरी ओर देश के हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों और अन्य धर्मों के अनुयायियों ने किस बहादुरी से इस दमन-बर्बरता का सामना किया और क़ुर्बानियां दीं तो इसे जानकर सीना फ़ख़्र से फूल गया। इस प्रदर्शनी को देश के विभिन्न बड़े शहरों में घुमाया गया तो बेज़ुबान दस्तावेज़ों में छिपा अंग्रेज़ शासकों की बर्बरता और जनता के प्रतिरोध का इतिहास सजीव हो उठा, मानो दफ़्न इतिहास ज़िंदा होकर सामने खड़ा हो।

याद रहे कि जलियाँवाला बाग़ में बैसाखी वाले दिन समकालीन दस्तावेज़ों के अनुसार 20 हज़ार से ज़्यादा लोग कांग्रेसी नेताओं डॉ. सतपाल और सैफ़ुद्दीन किचलू की गिरफ़्तारी का विरोध करने के लिये जुटे थे।

क़त्लेआम के चश्मदीद दस्तावेज़

सबसे दिल दहला देने वाले दस्तावेज़ और चित्र ‘जलियांवाला बाग़’ त्रासदी से संबंधित हैं। रतन देवी जिन्होंने 13 और 14 अप्रैल 1919 की रात जलियांवाला बाग़ में हज़ारों लाशों और ज़ख़्मियों के बीच अपने  पति की लाश के सिरहाने बैठकर बिताई थी, उनका रोंगटे खड़े कर देने वाला मूल बयान भी पढ़ने को मिलता है-

“मैं अपने मृतक पति के पास बैठ गई, मेरे हाथ बांस का एक डंडा भी लग गया था, जिससे मैं कुत्तों को भगाती रही। मेरे बराबर में ही तीन और लोग गंभीर रूप से ज़ख़्मी पड़े थे, एक भैंस गोलियां लगने के कारण बुरी तरह रेंग रही थी, और लगभग 12 साल का एक बच्चा, जो बुरी तरह से ज़ख़्मी था और मौत से लड़ रहा था, मुझसे बार-बार निवेदन करता था कि मैं उसे छोड़ कर न जाऊँ। मैंने उसे बताया कि वो फ़िक्र न करे क्योंकि मैं अपने मृतक पति की लाश को छोड़कर जा ही नहीं सकती थी। मैंने उससे पूछा कि अगर उसे सर्दी लग रही हो तो मैं उसे अपनी चादर उढ़ा देती हूं, लेकिन वह तो पानी मांगे जा रहा था, लेकिन पानी वहां कहां था।”
4 अक्टूबर, 1919 के ‘अभ्युदय’ अख़बार में छपी 18 वर्षीय अब्दुल करीम और 17 वर्षीय रामचंद्र नाम के दो दोस्तों की तसवीरों और जलियांवाला बाग़ में उनकी शहादत के वृत्तांत को पढ़कर दिल-दिमाग़ सन्न हो जाता है।
ये दोनों ही अमृतसर से नहीं बल्कि लहौरियों के बेटे थे। अब्दुल करीम की शहादत के तुरंत बाद जब परीक्षाफल प्रकाशित हुआ तो पंजाब विश्वविद्यालय की दसवीं की परीक्षा में वह सर्वप्रथम आए थे।

निहत्थे देश वासियों पर हवाई बमबारी

यह शर्मनाक तथ्य भी पहली बार सामने आया कि जलियाँवाला बाग़ क़त्लेआम के अगले दिन, 14 अप्रैल, 1919 को अंग्रेज़, वायुसेना के एक जहाज़ नंबर 4491, किस्मबी.ई.जेड.ई. जो कि 31वें स्क्वाड्रन का हिस्सा था, को उड़ाते हुए कैप्टन कारबेरी ने 2.20 मिनट से लेकर 4.45 मिनट तक ज़बर्दस्त बमबारी की थी। अंग्रेज़ी वायुसेना के रिकॉर्ड में दर्ज हवाई बमबारी के ब्यौरे के अनुसार:

“समय 15.10, जगह गुजरांवाला रेलवे स्टेशन (अब पाकिस्तानी पंजाब में) के आसपास बमबारी से आग की लपटें उठ रही हैं। समय 15.20 स्थान गुजरांवाला के उत्तर पश्चिम में 2 मील दूर एक गांव-लगभग 150 लोगों की भीड़ पर बमबारी, गांव में मशीन गन से 50 राउंड गोली चलाई। समय 15.30, स्थान- पहली वाली जगह से एक मील दक्षिण की ओर पचास लोगों की भीड़ पर बमबारी, गांव में मशीन गन द्वारा 25 राउंड गोलीबारी, एक खेत में 200 लोगों की भीड़ पर बमबारी, लोग भागकर एक घर में घुसे, जिस पर 30 राउंड मशीन गन से गोलीबारी। समय 15.40, स्थान गुजरांवाला नगर के दक्षिण में लोगों की भीड़ पर बमबारी, सड़कों पर चलते हुए ‘देसी’ लोगों पर मशीन गन से 100 राउंड गोलीबारी। 15.50 पर जब बमवर्षक जहाज लाहौर के लिये चला तो कोई प्राणी सड़कों पर नहीं था। समय, 16.45, लाहौर हवाई अड्डे पर बमवर्षक जहाज की सही सलामत वापसी।

प्रतिरोध की हैरत-अंगेज़ दास्तानें

​इस प्रदर्शनी में सर सिडनी आर्थर टेलर रौलेट की अध्यक्षता  में सन् 1917 में गठित राजद्रोह समिति से संबंधित गुप्त दस्तावेज़ों को पहली बार पेश किया गया। इस समिति ने उस समय में 87020 रुपये खर्च करके कलकत्ता और लाहौर में गुप्त बैठकें कीं और 18 अप्रैल, 1918 को अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट को सरकार ने स्वीकार करके अराजकता या क्रांतिकारी अपराध अधिनियम (रौलेट एक्ट नाम से बदनाम) के तौर पर 18 मार्च, 1919 को देश भर में लागू किया।

देश भर में इसका ज़बर्दस्त विरोध हुआ। प्रदर्शनी में मोहम्मद अली जिन्ना का 28 मार्च, 1919 वाला वह पत्र भी प्रदर्शित किया गया, जिसमें उन्होंने सरकार पर ‘सभ्यता का दामन छोड़ देने का इल्ज़ाम लगाते हुए इम्पीरियल विधान परिषद से इस्तीफ़ा देने की घोषणा की थी। जिन्ना, जो बाद में एक सांप्रदायिक नेता के तौर पर उभरे, कभी भारत के आम लोगों की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए इम्पीरियल विधान परिषद की सदस्यता को लात भी मार सकते थे, यह जानकर सुखद एहसास होता है।

​इस प्रदर्शनी में केंद्रीय ख़ुफ़िया विभाग की अति-गुप्त रिपोर्ट को भी पहली बार देश के सामने रखा गया। आमतौर पर शांत और अहिंसात्मक माने जाने वाले गुजरातियों ने रौलेट समिति के ख़िलाफ़ अहमदाबाद में अंग्रेज़ी सत्ता के प्रतीकों की जिस तरह होली जलाई थी, वह जानने योग्य है।
प्रदर्शित गुप्त रिपोर्ट के अनुसार 11, 12 अप्रैल 1919 को अहमदाबाद में प्रदर्शनकारियों ने कलेक्टर के दफ़्तर, नगर मजिस्ट्रेट, फ्लैगस्टाफ़, अहमदाबाद जेल, मुख्य टेलीग्राफ़ केंद्र और 26 पुलिस चौकियों को आग लगाई थी। स्वयं अंग्रेजों की इस रिपोर्ट से यह बात साफ़ होती है कि अंग्रेज़ सत्ता के विरोध के केंद्र केवल बंगाल और पंजाब ही नहीं थे।

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का प्रतिरोध

इस प्रदर्शनी में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के अपने हाथ से लिखे उस मूल पत्र की प्रति भी दर्शकों के लिए उपलब्ध कराई गई, जो उन्होंने पंजाब में दमन के विरोध में ‘नाइट’ की उपाधि त्यागने की घोषणा करते हुए वायसराय को लिखा था। इस पत्र में लिखा –

“समय आ गया है जबकि सम्मान के पदक वर्तमान अपमान के संबंध में हमारी लज्जा के प्रतीक बन गए हैं… और मैं अपनी ओर से खड़ा रहना चाहता हूँ, हर प्रकार की विशिष्टता के बिना अपने देश के लोगों के साथ जिनको साधारण आदमी होने के कारण एक ऐसा अपमान और जीवन सहना पड़ रहा है, जो इंसान के लिए किसी भी तरह स्वीकार योग्य नहीं है।”

सरकारी कर्मचरियों का प्रतिरोध

भारत सरकार के गृह सचिव का इसी दौर का एक और रोचक पत्र भी यहाँ उपलब्ध कराया गया, जिससे पता लगता है कि दमन के ख़िलाफ़ केंद्रीय सचिवालय के सरकारी कर्मचारियों ने भागीदारी की थी। इस गुप्त पत्र में गृह सचिव ने सख़्त कार्रवाई की मांग करते हुए यह भी लिखा कि सरकार की भंग पिटने के डर से अनुशासनात्मक कार्रवाई न की जाए।

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