लीजिए, अब सरकार के बड़े अधिकारी ने भी ‘नये संविधान’ की मांग रख दी! पहले मोदी सरकार के विरोधी तंज में कहते थे कि आप तो संविधान ही बदल देंगे, अब सरकार के बड़े ओहदे पर बैठे अधिकारी- प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने ‘नये संविधान’ की बात कह दी। विवाद तो होना ही था। विवाद हुआ तो प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने खुद को उस बयान से अलग कर लिया। अब खुद बिबेक देबरॉय सफाई देते फिर रहे हैं। तो सवाल है कि अब मोदी सरकार के बड़े ओहदे वाले अधिकारी द्वारा ‘नये संविधान’ की बात क्यों कही जा रही है? वह भी अख़बार में लेख लिखकर? क्या कुछ लोगों को लगता है कि मौजूदा संविधान में ‘भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ की बात ठीक नहीं है?
कुछ लोग क्यों नये संविधान की बात कह रहे हैं और मौजूदा संविधान में ऐसा क्या है, इन सवालों के जवाब बाद में, पहले यह जान लें कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने आख़िर क्या कहा है।
दरअसल, बिबेक देबरॉय ने 15 अगस्त को मिंट अखबार में नए संविधान की वकालत करते हुए एक लेख लिखा। उसका शीर्षक था, ‘हम लोगों के लिए नए संविधान को अपनाने का मामला है’। इस लेख में देबरॉय ने लिखा, ‘अब हमारे पास वह संविधान नहीं है जो हमें 1950 में विरासत में मिला था। इसमें संशोधन किया गया है, हमेशा बेहतरी के लिए नहीं। हालाँकि 1973 से हमें बताया गया है कि इसकी ‘बुनियादी संरचना’ को बदला नहीं जा सकता है, भले ही लोकतंत्र संसद के माध्यम से कुछ भी चाहता हो; क्या कोई उल्लंघन है, इसकी व्याख्या अदालतों द्वारा की जाएगी। जहां तक मैं इसे समझता हूं, 1973 का फ़ैसला मौजूदा संविधान में संशोधन पर लागू होता है, नए पर नहीं।’
देबरॉय ने एक अध्ययन के हवाले से बताया है कि लिखित संविधान का जीवनकाल मात्र 17 वर्ष होता है। भारत के वर्तमान संविधान को औपनिवेशिक विरासत करार देते हुए उन्होंने लिखा, ‘हमारा वर्तमान संविधान काफी हद तक 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित है। इस अर्थ में, यह एक औपनिवेशिक विरासत भी है।’
“हम जो भी बहस करते हैं उसका अधिकांश हिस्सा संविधान से शुरू और ख़त्म होता है। कुछ संशोधनों से काम नहीं चलेगा। हमें ड्राइंग बोर्ड पर वापस जाना चाहिए और पहले सिद्धांतों से शुरू करना चाहिए, यह पूछना चाहिए कि प्रस्तावना में इन शब्दों का अब क्या मतलब है- समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, न्याय, स्वतंत्रता और समानता। हम लोगों को खुद को एक नया संविधान देना होगा।
बिबेक देबरॉय के लेख का एक अंश
इस लेख के दो दिन बाद पीएम की आर्थिक सलाहकार परिषद ने गुरुवार को खुद को और सरकार को उनके विचारों से दूर कर लिया है। इसने कहा है, ‘डॉ. बिबेक देबरॉय का हालिया लेख उनकी व्यक्तिगत क्षमता में था। वे किसी भी तरह से ईएसी-पीएम या भारत सरकार के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।’ यह परिषद भारत सरकार, विशेष रूप से प्रधानमंत्री को आर्थिक और संबंधित मुद्दों पर सलाह देने के लिए गठित एक स्वतंत्र निकाय है। कुछ ऐसी ही सफाई देबरॉय की आई है।
देबरॉय ने एएनआई को बताया, ‘पहली बात यह है कि जब भी कोई कॉलम लिखता है, तो हर कॉलम में हमेशा यह चेतावनी होती है कि यह कॉलम लेखक के व्यक्तिगत विचारों को दर्शाता है। यह उस संगठन के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करता है जिससे व्यक्ति जुड़ा हुआ है… दुर्भाग्य से, इस विशेष मामले में किसी ने इन विचारों को प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के लिए जिम्मेदार ठहराया है।’
रंजन गोगोई ने भी संविधान पर बोला था
वैसे, इनकी सफ़ाई कुछ भी हो, लेकिन बिबेक देबरॉय ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने संविधान या इसमें प्रावधानों को लेकर सवाल उठाए हैं। सरकार में कई ऐसे लोग हैं जो संविधान में बड़े बदलाव की वकालत करते रहे हैं। हाल ही में मौजूदा राज्यसभा सांसद और पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई भी इसकी पैरवी कर चुके हैं।
रंजन गोगोई ने संसद के मानसून सत्र के दौरान राज्यसभा में कहा था, ‘…मेरा विचार है कि संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत का एक बहुत ही विवादास्पद न्यायिक आधार है। मैं इससे अधिक कुछ नहीं कहूंगा।’ सदन में यह उनका पहला भाषण था और वह भी संविधान पर।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसी साल जनवरी में न्यायपालिका की तुलना में विधायिका की शक्तियों का मुद्दा उठाया था। उन्होंने संसद के कामों में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप पर नाराजगी जताई थी। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा था कि संसद कानून बनाती है और सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देता है। उन्होंने पूछा कि क्या संसद द्वारा बनाया गया कानून तभी कानून होगा जब उस पर कोर्ट की मुहर लगेगी।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा था, ‘क्या हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं’, इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा। केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन इसकी मूल संरचना में नहीं।
धनखड़ ने कहा था कि 1973 में एक बहुत गलत परंपरा शुरू हुई। उन्होंने कहा था कि ‘केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने मूल संरचना का सिद्धांत दिया कि संसद संविधान संशोधन कर सकती है, लेकिन इसके मूल संरचना को नहीं। कोर्ट को सम्मान के साथ कहना चाहता हूँ कि इससे मैं सहमत नहीं।’ पूर्व क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू भी कुछ इसी तरह के विचार लगातार रखते रहे थे।
जब तब आने वाले ऐसे ही विचारों को लेकर विपक्षी हमला करते रहे हैं कि बीजेपी और आरएसएस संविधान को बदलना चाहते हैं। वे यह भी दावा करते रहे हैं कि कुछ लोगों को संविधान की प्रस्तावना में दर्ज संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता जैसे शब्द चुभते रहे हैं। तो क्या सच में ऐसा है कि मौजूदा संविधान कुछ लोगों को चुभता है?