करगिल विजय दिवस स्पेशल : समुद्र तल से करीब 18000 फीट उंचाई पर करगिल की पहाड़ियों में ठुठरा देने वाली ठंड के बीच लड़ी गई हिंदुस्तान-पाकिस्तान की जंग में देश के 527 सैनिक शहीद हुए थे और 1363 घायल। इनमें अधिकतर नॉर्दन लाइट इंफेंट्री के सैनिक थे। पाकिस्तान ने अप्रैल के अंत में अपने 5000 सैनिकों की मदद से करगिल पर कब्जा किया था। इसके बटालिक सेक्टर के गारकॉन गांव का चरवाहा ताशि नाम्ग्याल एक दिन अपने खोये याक को ढूंढता हुआ जब उस ओर पहुंचा तो उसने पाकिस्तानी फौजियों की गतिविधियाँ देखीं, जिसकी जानकारी तत्काल स्थानीय सेना अधिकारियों को दे दी। उसके बाद करगिल से खदेड़ने के लिए भारतीय और पाकिस्तानी सेना के बीच 3 मई 1999 से युद्ध शुरू हुआ। इस दौरान भारत की ओर से ढाई लाख से अधिक गोले दागे गए। पांच हजार से अधिक बम फायर हुए। तीन सौ के करीब मोर्टार, तोपें, रॉकेट चले। वायु सेना की जहाजों ने 580 उड़ानें भरीं तथा 2500 से ज्यादा बार भारतीय सेना के हेलीकॉप्टर को आकाश के चक्कर काटने पड़े। तब जाकर करगिल की पहाड़ियां पाकिस्तानी सेना से मुक्त हुईं। 14 जुलाई 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी ने करगिल मुक्त करने का ऐलान किया और प्रत्येक वर्ष 26 जुलाई को ‘करगिल विजय दिवस’ मनाने की घोषणा की।
527 में 449 शहीदों के नाम मिले जिनमें 24 मुस्लिम सैनिक भी शामिल हैं। इस सूची में कैप्टन हनीफ, एमएच अनिरूद्दीन, हवलदार अब्दुल करीब-ए, हवलदार अब्दुल करीम-बी, नायक डीएम खान, लांस नायक हरियाणा के अहमद, यूपी के लांस नायक अहमद अली, जीके के लांस नायक जीए खान, लांस नायक लियाकत अली, हरियाणा के जाकिर हुसैन, आंध्रप्रदेश के एसएम वली व नसीर अहमद का जिक्र है। युद्ध के दौरान ग्रेनेडियर्स, गनर और राइफलमैन का अहम रोल होता है। ये आगे रहकर दुश्मन सेना से सीधा मोर्चा लेते हैं। जानकर आश्चर्य होगा कि करगिल युद्ध में छह मुस्लिम ग्रेेनेडियर्स भी दुश्मन देश से लोहा लेते शहीद हुए थे जिनमें एमआई खान, रियासत अली, आबिल अली खान, जाकिर हुसैन, जुबैर अहमद और असन मोहम्मद उल्लेखनीय हैं। युद्ध में आगे रहकर राइफलमैन केरल के अब्दुल नाजिर, राजपूताना राइफल्स के मंज़ूर अहमद, जम्मू कश्मीर के मोहम्मद आलम और मोहम्मद फरीद तथा हरियाण निवासी गनर रियास अली ने भी सीने पर गोलियां खाई थीं।
कारगिल युद्ध में राजस्थान के 52 जांबाजों की शहादत को भला कौन भूल सकता है? सबसे खौफनाक मंजर था, जब 6 भारतीय जवानों के साथ पाकिस्तानी सैनिकों ने बर्बरता की। किसी जवान की आंखें निकाल दीं तो किसी के कान-नाक काट डाले, तो किसी के शरीर में गर्म सलाखों से छेद कर दिए।
टीपू सुल्तान धनूरी सेवानिवृत्त कैप्टन – मेरे 16 साथी शहीद हो चुके थे, लेकिन हम खालूबार चोटी से दुश्मन को खदेड़ कर ही लौटे : पिछले 21 साल में मैं कारगिल को एक दिन भी नहीं भूला पाया हूँ। यह अप्रैल मई का महीना था । हमारी यूनिट 22 ग्रेनेडियर हैदराबाद पीस में तैनात थी। उस वक्त मैं अपने गांव धनूरी आया हुआ था। युद्ध की आहट पर मैसेज मिलने के बाद मैं पहले हैदराबाद पहुंचा और वहां से दूसरे तीसरे दिन हमारी पूरी यूनिट 18 हजार फीट ऊंचाई पर बटालिक के बर्फीले पहाड़ों में थी। जहां ठंडी हवाएं ऐसी थी कि शरीर को चीर दें। बर्फ ने जैसे हमारी सांसों को जमा दिया था। विशालकाय खड़ी चट्टानें। रात के अंधेरे में पांच कदम की दूरी पर क्या है यह देख पाना भी संभव नहीं था। दुश्मन ऊंचाई पर था। हमारी चोटियों पर उसका कब्जा था। वह कब कहां से हमला कर दे। कुछ पता नहीं था, लेकिन प्रत्येक भारतीय जवान शायद मृत्यु को चुन चुका था। इसलिए मृत्यु का कोई भय ही नहीं, रहा था। इसी जज्बे के साथ हम आगे बढ़ते गए। हमारी यूनिट के 16 जवान एक एक कर शहीद होते गए, लेकिन पूरी यूनिट डटी रही। इसी बीच दुश्मन की ओर से आए दो हैलिकॉप्टर ने हम पर हमला कर दिया। ये हैलिकॉप्टर हमें जिंदा ले जाना चाहते थे। जिस पर हमने कुछ दूर पीछे चल रही आर्टिलरी के एसओएस से ओवर सौल फायर मांगा। आखिर दुश्मन पश्त हुआ। उसे उल्टे लौटना पड़ा। हमारी यूनिट ने खालूबार रिज चोटी पर तिरंगा फहराया। यह भी गर्व की बात है कि इस यूनिट को शेखावाटी के ही लाल जूलियासर सालासर निवासी मेजर अजीत सिंह शेखावत लीड कर रहे थे।
शहीद होने से पहले इन जवानों ने अपने परिवारों को जल्द घर आने की बात लिखते हुए खत भेजे थे, लेकिन उन खतों में लिखे शब्द ही आखिरी बनकर रह गए। जब-जब कारगिल शहीद दिवस आता है, वीरांगनाएं उन खतों को पढ़कर उनकी शहादत के किस्से याद करती हैं।
ऐसे ही शहीद परिवारों से बातचीत कर हमने उनके लिखे आखिरी खतों की बातों और जांबाजी के किस्सों को जाना…
शहीद बनवारी लाल : 200 पाकिस्तानी सैनिकों से भिड़े
सीकर जिले की लक्ष्मणगढ़ तहसील के सिंगडोला के शहीद बनवारी लाल की वीरांगना संतोष बताती हैं कि मेरे पति साल 1996 में सेना की जाट रेजिमेंट में भर्ती हुए थे। 1999 में उनकी पोस्टिंग काकसर में थी। जब कारगिल की लड़ाई शुरू हुई, तब वे 15 मई 1999 को बजरंग पोस्ट पर अपने कैप्टन सौरभ कालिया और अन्य 4 साथी जवानों के साथ पेट्रोलिंग करने के लिए गए थे। वहां पाकिस्तानी सेना छिपकर बैठी थी। दोनों के बीच जमकर गोलीबारी हुई थी। इधर 6 जवान तो दूसरी तरफ 200 पाकिस्तानी सैनिक थे।
सीकर के शहीद बनवारी लाल बगड़िया और सीताराम कुमावत।
संतोष बताती हैं कि दोनों ओर से जबरदस्त गोलीबारी शुरू हो गई। आखिरी गोली खत्म होने तक मेरे पति और जाट रेजिमेंट के बाकी जांबाज उनका सामना करते रहे। लेकिन, जब हथियार खत्म हुए तो दुश्मनों ने उन्हें चारों ओर से घेरकर अपनी गिरफ्त में ले लिया। उनके साथ 24 दिन तक बर्बरतापूर्वक व्यवहार किया गया। उनके हाथ-पैर की अंगुलियां काट डाली। गर्म सलाखें शरीर में गोद दी। आंख-कान भेदने के बाद उनका शव क्षत-विक्षत हालत में छोड़ दिया गया। इस मंजर को याद कर हमारा आज भी खून खौल उठता है।
वीरांगना संतोष ने बताया- पाकिस्तानी सेना ने इस कदर अत्याचार किया था कि मानो कोई जल्लाद हो। वो रोज हमारे जवानों को भारत की तरफ छोड़ कर चले जाते। मेरे पति का शव भी भारतीय सेना को 9 जून को मिला था। उनके शरीर के जगह-जगह टुकड़े किए हुए थे। परिवार आज भी वह दर्द भरा मंजर याद करता है तो सहम उठता है।
संतोष बताती हैं कि मेरे पति शहादत के 8 महीने पहले दादी सास की मौत पर गांव आए थे। 15 मार्च 1999 को उन्होंने एक खत भेजा था, जो उनका आखिरी खत और मेमाेरी बन गया। लिखा था- छुट्टी मंजूर होते ही मई में घर लौटूंगा। लेकिन, किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।
पढ़िए- बनवारी लाल का पत्नी संतोष को लिखा आखिरी खत….
तिरंगे में लिपटा शहीद का शव जब चिथड़ों के रूप में घर पहुंचा तो देखने वाले सिहर उठे थे। उस घटना का जिक्र होते ही वीरांगना अपनी आंखों में उमड़ते आंसुओं के सैलाब को नहीं रोक पाती हैं।
सीताराम कुमावत : पाकिस्तान की तीन चौकियां बर्बाद की, खत में लिखा- मेरी चिंता मत करना
सीकर के पलसाना के रहने वाले सीताराम 1993 में सेना में भर्ती हुए थे। 3 जून 1999 को कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए थे। आखिरी बार परिवार के साथ होली सेलिब्रेट की थी। जब शहीद हुए तो बेटी प्रियंका 5 साल और नीतू 4 साल की थी। वर्तमान में प्रियंका जयपुर ट्रेजरी में जूनियर अकाउंटेंट के पद पर नौकरी कर रही हैं। जबकि छोटी बेटी नीतू आर्किटेक्ट का कोर्स कर रही हैं।
सीताराम वो जांबाज हैं जिन्होंने 18 ग्रेनेडियर की अपनी टीम के साथ द्रास सेक्टर में दुश्मन की तीन चौकियों को तबाह किया। चौथी चौकी फतेह करने आगे बढ़े ही थे कि दुश्मन की मिसाइल का शिकार होकर शहीद हो गए।
वीरांगना सुनीता देवी के पास शहीद पति सीताराम कुमावत का एक आखिरी खत है जिसे उन्होंने संजोकर रखा है। यह खत उन्होंने अपनी बहन को संबोधित करते हुए पूरे परिवार के लिए लिखा था। बेटी प्रियंका जब भी पिता का आखिरी खत पढ़ती हैं तो उनकी आंखें नम हो जाती हैं।
शहीद सीताराम का कुमावत का आखिरी खत…
सुभाष चंद्र जाखड़… अब, उस जांबाज की जुबानी कारगिल युद्ध की कहानी बताते हैं, जिसने पाकिस्तानी टैंकों पर गोले दागे, लेकिन गोली लगने से कटा पैर
जांबाजी की तीसरी कहानी सीकर के ही नीमकाथाना के कोटड़ा गांव की है। पैरा कमांडो के जवान सुभाष चंद्र जाखड़ को कारगिल युद्ध में भारतीय सेना की जांबाजी के किस्से आज भी याद हैं। जाखड़ ने अपने सटीक निशानों से पाकिस्तानी सेना की नाक में दम कर दिया था।
वे बताते हैं कि जनवरी 1999 में कश्मीर में पोस्टिंग थी। मैं कुपवाड़ा सेक्टर में ड्यूटी पर था। इसी बीच मई के दूसरे सप्ताह में कारगिल का युद्ध शुरू हुआ। अधिकारियों से ऑर्डर मिला कि अब कारगिल जाना है। वहां लगातार गोलीबारी हो रही थी। इस बीच मैं भी अपने साथियों के साथ कारगिल पहुंच गया था। हमें टास्क मिला था कि कारगिल से 20 किलोमीटर दूर बटालिक पर पाकिस्तानी सेना ने 16 हजार फीट ऊंची पहाड़ी पर बने हमारे बंकर पर कब्जा कर लिया है, जिसे छुड़ाना है।
सिंध नदी को पार कर LOC जाना था चुनौती
मैं और मेरा साथी 16 मई की रात को सेना की गाड़ियों से बटालिक के लिए रवाना हुए। पहाड़ियों पर पाकिस्तानी सैनिक डेरा डाले हुए थे। बटालिक पहुंचने के बाद सबसे बड़ी चुनौती सिंध नदी के पुल को पार कर LOC की तरफ जाना था। 17 और 18 मई को सुबह के समय किनारे-किनारे चल कर पहले सिंध नदी को पार किया। मेरे कंधे पर 25 से 30 किलो का बैग था, जिसमें जरूरी दवाइयां, पानी सहित अन्य सामान था। बैग पीठ पर लादकर हम दोनों ने 16 हजार फीट ऊंची पहाड़ी पर चढ़ना शुरू कर दिया था।
पाकिस्तान की फायरिंग के बाद टैंक से गोले दागे
19 मई की सुबह हमने 45 किलोमीटर का सफर तय किया। हम पाकिस्तान के कब्जे में लिए बंकर से करीब 600 मीटर दूर थे। यहां तापमान माइनस 15 डिग्री के आसपास था। इस बीच पाकिस्तानी सेना ने फायरिंग शुरू कर दी। हम सभी ने भी बंकर की घेराबंदी शुरू कर दी थी। करीब 2 से 3 घंटे 5-5 जवानों की टुकड़ी 100-100 मीटर की दूरी पर बैठी थी। सुभाष चंद्र जाखड़ बताते हैं कि मेरे पास एक रॉकेट लॉन्चर था। मैंने उससे एकदम सटीक निशाना बंकर पर लगाया था। इससे पाकिस्तानी सैनिक तितर-बितर हो गए।
दुश्मनों की हाउजर गन से हमारे जवान हुए थे जख्मी
कई घंटों तक दोनों ओर से गोलियां चलीं। हमें लड़ते-लड़ते दोपहर हो गई। तभी पाकिस्तानी सेना ने हाउजर गन से फायर किया, जिसके छर्रे मेरे सहित 4 जवानों के शरीर पर लगे। मेरा बायां पैर बुरी तरह से जख्मी हो गया, जिसके कारण पैर ने काम करना बंद कर दिया। मैं हिल भी नहीं पा रहा था। बाकी 3 जवान राजेंद्र सिंह, एसपी नवानी और सुरेंद्र सिंह भी जख्मी हो गए थे।
आंखों के सामने साथी हो गया था शहीद
पाकिस्तान की लगातार फायरिंग से हुडील गांव (नागौर) के रहने वाले जवान सुरेंद्र सिंह शेखावत हमारी आंखों के सामने ही शहीद हो गए थे। तब कमांडिंग अफसर आर एस भदौरिया से वायरलेस पर मैसेज मिला कि नीचे आ जाओ। मैं बाकी जवानों से थोड़ी ऊंचाई पर था। ऐसे में मेरे तक मैसेज नहीं पहुंच पाया था। मैं शहीद सुरेंद्र सिंह शेखावत के पास लेटा रहा। शहीद सुरेंद्र के पास एक LMG गन थी। मैंने उस गन से पाकिस्तानी सेना पर फायरिंग जारी रखी।
गोली लगने से बायां पैर काटना पड़ा
तभी दूसरी टुकड़ियों से मैसेज मिला कि नीचे चले जाओ। 21 मई की सुबह रेंग-रेंगकर जैसे-तैसे बेस कैंप तक पहुंच गया। बेस कैंप से कारगिल में MI रूम पहुंचाया गया। लेह, चंडीगढ़, पुणे, बेंगलुरु के कई हॉस्पिटल में मई 2000 तक इलाज चला। पुणे में डॉक्टरों की ओर से जवाब दिया गया कि बाएं पैर को घुटने के नीचे से काटना पड़ेगा। पैर को काटकर नकली पैर लगा दिया गया।
सेना से रिटायरमेंट के बाद फिलहाल जाखड़ शिक्षा विभाग में कनिष्ठ सहायक के पद पर नौकरी कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि कारगिल युद्ध में मैं केवल 2 दिन ही लड़ाई कर पाया था। लेकिन, आज भी अपने कटे पैर को देखता हूं तो युद्ध के पल आंखों के सामने आ जाते हैं।
शहीद सुरेंद्र सिंह शेखावत : डेढ़ महीने बाद घर पहुंची थी पार्थिव देह
कारगिल वॉर के दौरान द्रास में पॉइंट 5100 पर भारतीय सेना का कब्जा होने के बाद सबसे बड़ी चुनौती थी पॉइंट 4700 को फतेह करना। क्योंकि यही वो पॉइंट था जहां से पाकिस्तानी सेना नेशनल हाईवे NH-1D पर भारतीय सेना की हर एक्टिविटी पर नजर रख रही थी। साथ ही गोलीबारी भी कर रही थी। ऐसे में नागौर जिले के हुडिल के रहने वाले सुरेंद्र सिंह शेखावत को अपने साथियों के साथ पॉइंट 4700 के साथ ऊपर कब्जा हासिल करने के लिए भेजा गया।
शेखावत 28 फरवरी 1995 को इंडियन आर्मी की पैराशूट रेजिमेंट में भर्ती हो गए थे। उन्हें 10 पैरा कमांडो में पैराट्रूपर नियुक्त किया गया था। कमांड मिलने के बाद सारी मुश्किलों को पार करते हुए शेखावत 19 मई की सुबह पॉइंट के करीब पहुंचे। उन्होंने सुबह ऑपरेशन शुरू कर दिया था। दोनों ओर से भयंकर गोलीबारी होती रही। जांबाज शेखावत ने अपने युद्ध कौशल से पॉइंट 4700 पर मौजूद पाकिस्तानी सेना के नाकों चने चबा दिए। लेकिन, इसी बीच तोप गोलों का शोर चीरते हुए दुश्मनों की गोली जांबाज शेखावत को आकर लगी और वे लड़ते-लड़ते शहीद हो गए।
बर्फ में दब गई थी बॉडी
शहीद सुरेंद्र सिंह की बॉडी बर्फ में दब गई थी। उनकी शहादत के करीब डेढ़ महीने बाद 4 जुलाई 1999 को उनका शव गांव पहुंचा था। परिवार को भी 10 दिन बाद ही शहादत का पता चला था। शहादत के एक साल पहले ही उनकी शादी भंवर कंवर से हुई थी। पति की शहादत के समय पत्नी 6 महीने की प्रेग्नेंट थीं। 3 महीने बाद बेटी सरिता का जन्म हुआ था। सुरेंद्र सिंह शेखावत के अदम्य साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत सेना मेडल से सम्मानित किया गया। बेटी सरिता फिलहाल सरकारी नौकरी की तैयारी कर रही हैं।