आर्टिकल : रेशमी रूमाल की तहरीक भी दारूल उलूम की ही देन है

आर्टिकल : दुनिया का महान इस्लामी विश्व विद्यालय दारूल उलूम देवबंद ब्रिटिश शासन काल में क़ायम की गयी भारत की पहली मुफ़्त शिक्षा देने वाली संस्था है। दारूल उलूम एक विश्वविद्यालय ही नहीं है, बल्कि एक विचारधारा है जो देश और दुनिया में अंधविश्वास और कुरीतियों से लड़ते हुए इस्लाम को अपने मूल रूप में प्रसारित करता है। दारूल उलूम देवबंद की आधारशिला आज से क़रीब 156 साल पहले 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन रह0 व मौलाना क़ासिम नानौतवी रह0 ने रखी थी। वह दौर भारत के इतिहास में राजनैतिक तनाव का था।

1857 में अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बादल ख़त्म न हुए थे, और उस वक्त अंग्रेज़ों का भारतीयों के साथ दमनचक्र तेज़ हो गया था। अंगे्रज़ों ने अपनी पूरी ताक़त से 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन को कुचल कर रख दिया था। देवबंद जैसी छोटी जगह में भी 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। ऐसे सुलगते माहौल में देशप्रेम और आज़ादी की चाहत ने दारूल उलूम को जन्म दिया।

भारत हमेशा एक आदर्श विचार देने के लिए मशहूर रहा है। दारूल उलूम भी इसी भारतवर्ष के हिन्दी भाषी उत्तर प्रदेश के नगर देवबंद में स्थित है। दारूल उलूम की आधार-शिला के वक्त संपूर्ण भारतवर्ष में खलबली मची हुई थी। ऐसे वक्त में भारतीय समाज को एक करने की ज़रूरत थी।

बिखरते भारतीय समाज को एकजुट करने में दारूल उलूम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भारत की टूटती संस्कृति, शिक्षा और बिखरते समाज की सुरक्षा करते हुए दारूल उलूम ने लोगों के भीतर आज़ादी का एहसास जगाया। उस वक्त देश के उलमा ने खंडित भारतीय समाज को ज़ालिम ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ जगाने में अपनी जान की बाज़ी लगा दी।

भारत को अंग्रेजों के अत्याचार से निजात दिलाना पश्चिम की नक्ल से रोकना और अंग्रेजों की भारत के खि़लाफ नीतियों को नाकाम करना उस वक्त दारूल उलूम का एक अहम मक़सद था। दारूल उलूम के बानी मौलाना क़ासिम नानौतवी का बलिदान सुनहरे अक्षरों से लिखे जाने के क़ाबिल है। उन्होंने आज़ादी के मतवालों के दिलों में एक नयी रूह फूंक कर एक ऐसी ख़ूँरेज़ जंग का आग़ाज किया था, जिसका एतराफ़ अंग्रेज़ी शासन ने भी किया।

मौलाना क़ासिम नानौतवी की उम्र अभी 50 साल भी नहीं हुई थी कि जंगे-आज़ादी के मुख्तलिफ़ महाज़ों पर अपनी बेमिसाल सरफ़रोशी और कुर्बानियों की बुनियाद क़ायम करते हुए दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए रूख़सत हो गये। हज़रत नानौतवी की ज़िदगी में ही दारूल उलूम राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक सुधार के कई कामों को अंजाम दे चुका था।

मौलाना क़ासिम नानौतवी के बाद उनके शागिर्द, शेखुल हिन्द’ मौलाना महमूद हसन ने जंगे आज़ादी की कमान संभाली। उन्होंने दारूल उलूम से पढे़ सभी लोगों को जोड़ कर जमीअतुल अंसार नाम का एक संगठन बनाया जिसमें देशी और विदेशी तमाम तालीमयाफ़्ता शामिल थे। जिस वक्त शेखुल हिन्द ने मुकम्मल आज़ादी का नारा दिया, उस वक्त तक कोई भी राष्ट्रीय जमाअत या तहरीक वजूद में नहीं थी।

हज़रत मौलाना असद मदनी की एक तहरीर के मुताबिक़ आज़ादी की तीसरी जंग शेखुल हिन्द की क़यादत में लड़ी गयी। जंगे आज़ादी का एक मुश्तरका प्लेटफार्म बनाने के लिए दारूल उलूम के सद्र शेखुल हिन्द ने महात्मा गांधी को लीडर बनाया। उन्होंने जमीअतुल अंसार का मुख्यालय दिल्ली में बनाया जहां उन्हें महात्मा गांधी जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, लाल लाजपत राय, मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी जैसे देश के आला नेताओं का सहयोग बख़ूबी मिला।

इतिहास में रेशमी रूमाल की तहरीक भी दारूल उलूम की ही देन है। यह उस वक्त की बात है जब मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी ने काबुल में अमीर हबीबुल्लाह से तुर्की में हमले की इजाज़त हासिल कर ली और मुआहिदा तय हो गया था। उन्होंने इसकी इत्तिला शेखुल हिन्द को देने के लिए रेशम के एक रूमाल पर संदेश को बुना लेकिन इत्तिफाक़ से यह रूमाल रास्तें में ही अंग्रेजों  के हाथ लग गया और तमाम मंसूबों का राज़ फ़ाश हो गया। और इसकी सज़ा आज़ादी के दीवानों को चुकानी पड़ी। और अंजाम यह हुआ कि मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी और अमीर हबीबुल्लाह को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया।

इसी तरह शेखुल हिन्द को मक्का में एक फ़त्वे पर दस्तख़त नहीं करने के बहाने गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर बाद में माल्टा की जेल में कै़द कर दिया गया और 30 नवम्बर 1920 को शैखुल हिन्द का इन्तिक़ाल हो गया। इसके बाद भी दारूल उलूम के उस्तादों में आज़ादी का जज़्बा कम नहीं हुआ। 1920 और 1942 की लड़ाई में दारूल उलूम के नौजवानों ने बखूबी हिस्सा लिया और और आखि़रकार 1947 में पूरे देश में आज़ादी की शमा रौशन हुई।

इस्लामी दुनिया में दारूल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया क मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारूल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचाराधारा है, जो अंधविश्वास, कूरीतियों व आडम्बरों के विरूध इस्लाम को अपने मूल और शुदध रूप में प्रसारित करता है। इसलिए मुसलमानों में इस विखराधारा से प्रभावित मुसलमानों को ‘‘देवबन्दी‘‘ कहा जाता है।

देवबन्द उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो आबादी के लिहाज़ से तो एक लाख से कुछ ज्यादा आबादी का एक छोटा सा नगर है। लेकिन दारूल उलूम ने इस नगर को बडे-बडे नगरों से भरी व सम्मानजनक बना दिया है, जो ना केवल अपने गर्भ में एतिहासिक पृष्ठ भूमि रखता है, अपितु आज भी साम्प्रदायिक सौहार्दद धर्मनिरपेक्षता एवं देश प्रेम का एक अजीब नमूना प्रस्तुत करता है।

देवबन्द इस्लामी शिक्षा व दर्शन के प्रचार के व प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। भारतीय संस्कृति व इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो समन्वय आज हिन्दुस्तान में देखने को मिलता है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबन्द दारूल उलूम को जाता है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केंद्र बिन्दु है। दारूल उलूम ने न केवल इस्लामिक शोध व साहित्य के संबंध में विशेष भूमिका निभायी है, बल्कि भारतीय पर्यावरण में इस्लामिक सोच व संस्कृति को नवीन आयाम तथा अनुकूलन दिया है।

दारूल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना कासिम नानोतवी द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारतक के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेजों के विरूद्ध लडे गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) की असफलता के बादल छंट भी ना पाये थे और अंग्रजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रजों ने अपने संपूर्ण शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आंदोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, (देवबन्द जैसी छोटी बस्ती में 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था) और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों पर निराशाओं के पृहार होने लगे थे। चारों ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जासे, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्ष जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्ष की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज एस समय तक विशाल एवं जालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुकाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवशयकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवशयकता थी जो धर्म व जाति से उपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।

इन्हीं उददेश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्ति का पाठ पढाया उनमें दारूल उलूम देवब्नद के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीय मौलाना महमूद हसन (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारूल उलूम देवबन्द) उन सैनानियों में से एक थे जिनके कलम, ज्ञान, आचार व व्यवहार से एक बडा समुदाय प्रभावित था, इन्हीं विशेषताओं के कारण इन्हें शेखुल हिन्द (भारतीय विद्वान) की उपाधि से विभेषित किया गया था, उन्हों ने न केवल भारत में वरन विदेशों (अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की, सउदी अरब व मिश्र) में जाकर भारत व ब्रिटिश साम्राज्य की भ्रत्‍सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेजी शासक वर्ग की मुखालफत की। बल्कि शेखुल हिन्द ने अफगानिस्तान व ईरान की हकूमतों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रमों में सहयोग देने के लिए तैयार करने में एक विशेष भूमिका निभाई। उदाहरणतयः यह कि उन्होंने अफगानिस्तान व ईरान को इस बात पर राजी कर लिया कि यदि तुर्की की सेना भारत में ब्रिटिश साम्राजय के विरूद्ध लडने पर तैयार हो तो जमीन के रास्ते तुर्की की सेना को आक्रमण के लिए आने देंगे।

शेखुल हिन्द ने अपने सुप्रिम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के माध्यम से अंग्रेज के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध चल रहे राष्टीय आंदोलन में शामिल कर दिया। इनके प्रमुख शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उबैदुल्ला सिंधी थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाओं पर चलते रहे, और अपने देशप्रमी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों व आंदोलनकारियों में एक भारी स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं।

Darul_Uloom_Deoband

सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिंधी ने अफगानिस्तात जाकर अंग्रजों के विरूद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की सर्वप्रथम स्वतंत्रत सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बना दिया। यहीं पर रहकर उन्होंने इंडियन नेशनल कांगेस की एक शाखा कायम की जो बाद में (1922 ई.) में मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी। शेखुल हिन्द 1915 ई. में हिजाज (सउदी अरब का पहला नाम था) चले गये, उन्होंने वहां रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से संपर्क बना कर सैनिक सहायता की मांग की।

सन 1916 ई. में इसी संबंध में शेखुल हिन्द इस्तम्बूल जाना चाहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब तैनात था शेखुल हिन्द को इस्तम्बूल के बजाये तुर्की जाने के लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्ध मंत्री अनवर पाशा हिजाज पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाकात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने भारतीयों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिसतान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार रहा। यह गुप्त सिलसिला ‘‘तहरीक ए रेशमी रूमाल‘‘ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि ‘‘ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्‍का थी‘‘

दारुल उलूम ने हमेशा दीन की रोशनी से पूरी दुनिया को मुनव्वर किया है। संस्थापकों की रहनुमाई, शूरा सदस्यों की कयादत, उलेमा की कुर्बानियों और मुस्लिम जगत की अकीदत और मोहब्बत से संस्था ने आला मुकाम हासिल किया है।

– मुफ्ती अबुल कासिम नौमानी (मोहतमिम, दारुल उलूम देवबंद)

दारुल उलूम देवबंद ने हमेशा मुसलमानों की रहनुमाई की। कोरोना काल में भी मुस्लिमों को जागरूक करने का काम किया। मस्जिदों में गाइडलाइन के मुताबिक नमाज पढऩे या न पढऩे का लेकर फतवे जारी किए गए।

– अशरफ उस्मानी, (प्रेस प्रवक्ता, दारुल उलूम देवबंद) 

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